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________________ स्वजन भी अनर्थकर, संबंधी परशुराम-सुभृमचक्री की कथा श्री उपदेश माला गाथा १५१ प्रशंसा करते रहते थे। एक दिन वे दोनों किसका धर्म श्रेष्ठ है? इसका निर्णय करने हेतु धर्म-परीक्षार्थ मर्त्यलोक में आये। मिथिला नगरी का राजा पद्मरथ उस समय अपना राज्य छोड़कर वैराग्यभाव से श्रीवासुपूज्यभगवंत के पास दीक्षा अंगीकार करने जा रहा था। उसे भावचारित्री देखकर जैनदेव ने अपने मित्र तापस भक्तदेव से कहा-'पहले हम इसकी परीक्षा कर लें, बाद में तुम्हारे तापस की परीक्षा करेंगे।' उन्होंने भाव साधु पद्मरथ जब भिक्षा के लिए घूम रहे थे। तो वे उनके सामने स्वादिष्ट उत्तम भोजन लाकर देने लगे, परंतु वे अपनी साधुवृत्ति से जरा भी विचलित न हुए, वह भोजन अकल्प्य होने से ग्रहण नहीं किया। उसके पश्चात् उन्होंने जिस महोल्ले में वे भावसाधु जा रहे थे, उसके मार्ग में जगह-जगह मेंढक ही मेंढक घूमते बताये। उस रास्ते को छोड़ वे जब दूसरे रास्ते में जाने लगे तो वहाँ कांटे बिखेर दिये। परंतु वे जीवों की विराधना वाले रास्ते को छोड़कर वे कांटे वाले रास्ते से चले। सावधानी पूर्वक चलने पर भी उनके पैर में कांटे चुभ जाने से खून की धारा बह निकली, दर्द भी बहुत होने लगा। परंतु भाव-मुनि जरा भी खिन्न न हुए, ईर्या समिति पूर्वक चलते हुए जरा भी उद्विग्न न हुए। तब देव ने एक नैमित्तिक का रूप बनाया और उनके सामने हाथ जोड़कर कहने लगे"भगवन्! आप दीक्षा लेने जा रहे हैं, परंतु मैं निमित्तबल से जानता हूँ कि आपका आयुष्य बहुत लंबा है, इसीलिए आप अभी राज्य चलाते हुए विषयसुखों का उपभोग करते हुए आनंद से जिंदगी बिताएँ, जब बुढ़ापा आ जाय तब आपका संयम ग्रहण करना ठीक रहेगा। कहाँ तो सुंदर मनोज्ञ विषयसुखों का स्वाद और कहाँ रेत के कौर के समान नीरस यह योगमार्ग? भाव-मुनि ने कहा-"भव्य! यदि मेरा आयुष्य लम्बा है तो बहुत ही अच्छा है, मेरे लिये। मैं दीर्घकाल तक चारित्र की आराधना करूँगा जिससे मुझे महान् लाभ ही होगा। और फिर धर्म में पुरुषार्थ तो युवावस्था में ही करना चाहिए। जैनशास्त्र दशवैकालिक में भी कहा है जरा जावं न पीडेइ वाही जावं न वड्डई । जाविदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥१२६।। अर्थात् - 'जब तक बुढ़ापा आकर पीड़ित नहीं कर लेता, जब तक कोई बीमारी आकर घेर नहीं लेती, जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं हुई, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए' ॥१२६।। बुढ़ापे से घिर जाने पर और उस समय इन्द्रियाँ शिथिल हो जाने पर मनुष्य धर्माचरण कर ही कैसे सकता है? कहा भी है 258 - -
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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