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दृढ़प्रहारी मुनि की कथा
श्री उपदेश माला गाथा १३६ पर उसे लँटेरा मिल गया। दोनों में परस्पर गुत्थम-गुत्थी होने लगी। इसी बीच दृढ़प्रहारी भी वहाँ आ पहुँचा। उसने तलवार के एक ही झटके से इस ब्राह्मण को मार गिराया। ब्राह्मण को अंतिम सांस गिनते देख उसके घर की गाय पूंछ उठाकर रोषवश दृढ़प्रहारी को मारने दौड़ी। मगर दृढ़प्रहारी ने उसे भी नीचे पटककर क्रूरतापूर्वक मार डाली। उसी समय पति को मरते देखकर उस ब्राह्मण की गर्भवती पत्नी रोती-चिल्लाती, विलाप करती जोर-जोर से दृढ़प्रहारी को कोसती और आँसू बहाती वहाँ आई। दृढ़प्रहारी ने आव देखा न ताव, उसके पेट में छुरा भौंककर उसे भी यमलोक पहुँचा दी। उसके पेट में से गर्भस्थ शिशु बाहर निकला और जमीन पर छटपटाने लगा। यह देखकर निर्दय दृढ़प्रहारी के मन में सहसा दया का अंकुर फूटा। वह पश्चात्ताप करने लगा- "हाय! मैंने कितना अनर्थ कर डाला! धिक्कार है मुझे इस प्रकार के अधर्मकर्मकारी को! इस निर्दोष, अनाथ और गर्भवती अबला को अकारण मारते हुए मुझे शर्म नहीं आयी! सचमुच, मैंने एक साथ चार जीवों की हत्याएँ कर दीं। एक हत्या भी नरकगति की कारण होती है। तो मुझे इन चार हत्याओं के फलस्वरूप कौन-सी दुर्गति मिलेगी? अरर! दुर्गतिरूपी कुंए में गिरते हुए मुझे कौन बचायेगा, कौन शरण देगा? इस प्रकार पश्चात्ताप, आत्मनिन्दा और विरक्ति की त्रिवेणी में गोते लगाता हुआ दृढ़प्रहरी अपने साथियों और सामान को वहीं छोड़कर झटपट नगर से बाहर निकल कर एक वन में पहुँचा। वहाँ एक शांत
और तेजस्वी साधु को देखते ही उनके चरणों में गिर पड़ा। नमस्कार करके पश्चात्तापपूर्वक अपने सारे पापकर्मों का कच्चा चिट्ठा मुनिवर के सामने खोलकर रख दिया और पूछा- "भगवन्! क्या कोई ऐसा मार्ग है; जिससे मैं इन हत्याओं के पापों से मुक्त हो सकू?'' मुनि ने आश्वासन देते हुए उसे कहा- 'भाई! घबराओ मत! ऐसा भी रास्ता है। पर वह है-महाव्रतों की आराधना। क्योंकि शुद्ध चारित्र (मुनि धर्म) की आराधना किये बिना ऐसे भयंकर पापों से मुक्ति नहीं हो सकती। निःस्पृह मुनि की बात दृढ़प्रहारी के गले उतर गयी। उसे महामोहमय संसार से विरक्ति हो गयी। इसीलिए उसने वहीं मुनिराज से परमकल्याणकारिणी पापनाशिनी मुनि दीक्षा ले ली।
दीक्षा लेते ही दृढ़प्रहारी मुनि ने अपना नाम सार्थक करने के लिए अपने पापकर्मों पर दृढ़ प्रहार करने हेतु इस प्रकार का दृढ़ अभिग्रह (वज्रसंकल्प) कर लिया कि-"जब तक मुझे ये चार हत्याएँ याद आती रहेंगी, तब तक मैं आहारपानी ग्रहण नहीं करूँगा।" इस अभिग्रह को स्वीकार करके दृढ़प्रहारी मुनि उसी नगर के एक दरवाजे पर कायोत्सर्ग (ध्यान) करके खड़ा रहा। उस दरवाजे से
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