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श्री उपदेश माला गाथा १३२-१३४ राग-द्वेष कषायादि संवेग और सभ्यक्त्यादि गुणों के घातक हैं के गुणों को सहन नहीं कर सकता, वह क्रोधनशील होता है। दूसरे को तुच्छ शब्दों से डांटना अथवा भला बुरा कहकर उसके गुणों की धज्जियां उड़ाना भंडनशीलता है, गालीगलौज अथवा तीखे वाक्यबाणों का प्रहार करना विवाद कहलाता है। ये सब क्रोध के ही प्रकार है। इसीलिए क्रोध का त्याग करके चारित्र की आराधना करना ही श्रेयस्कर है ॥१३१।।
जह वणदयो वणं, दवदवस्स जलिओ खणेण निद्दहइ ।
एवं कसायपरिणओ, जीवो तवसंजमं दहइ ॥१३२॥
शब्दार्थ - जैसे शीघ्र जलने वाला वनदव (दावानल-जंगल में लगी हुई आग) क्षणभर में सारे वन को जलाकर खाक कर देता है, वैसे ही क्रोधादि कषाय से युक्त साधु भी तप संयम की अपनी करणी को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है।।१३२।।
इसीलिए जो साधु संयम में सफलता चाहता है, वह समता आदि चारित्रधर्म के मूल का आदर करें।
परिणामवसेण पुणो, अहिओ ऊणयरओ व हुज्ज खओ ।
तह वि ववहारमित्तेण, भण्णड़ इमं जहा थूलं ॥१३३॥ . शब्दार्थ - परिणामों की तरतमता (न्यूनाधिकता) के अनुसार चारित्र क़ा न्यूनाधिक (कमोवेश) क्षय होता है। तथापि यह क्षय व्यवहारमात्र से कहा जाता है कि स्थूलरूप (मोटेतौर) से इतना क्षय हुआ है ।।१३३।।। . .
भावार्थ - जैनदर्शन में मुख्यतः दो नयों की दृष्टि से वस्तु का कथन होता है-निश्चयनय और व्यवहारनय। यहाँ व्यवहारनय की दृष्टि से कथन किया है। निश्चयनय की दृष्टि से तो कषाय का जैसा तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम अशुभ परिणाम होगा, तदनुसार ही व्यक्ति चारित्र का तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम क्षय करेगा। इसी प्रकार तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम जैसा भी शुभ परिणाम होगा, तदनुसार व्यक्ति चारित्र की वृद्धि करेगा। अर्थात् जैसा-जैसा जीव का परिणाम होगा, उसके अनुसार वह चारित्र (तप-संयम) का क्षय और वृद्धि करेगा ॥१३३॥
फसवयणेण दिणतयं, अहिक्खियंतो हणड़ मासतयं । _परिसतवं सवमाणो, हणइ हणंतो य सामण्णं ॥१३४॥
शब्दार्थ - 'किसी को कठोर वचन कहने पर व्यक्ति एक दिन के तप का नाश (संयम पुण्य का क्षय) कर देता है, अत्यंत क्रोधपूर्वक किसी के जाति, कुल आदि की भर्त्सना करने या किसी के मर्म को प्रकट करके उसे झिड़कने या निन्दा
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