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राग द्वेष के परिणाम
श्री उपदेश माला गाथा १२८-१३१ से दोनों शारीरिक और मानसिक दुःखों को पैदा करते हैं ।।१२७।।
थिद्धि अहो अकज्जं, जं जाणंतो वि रागदोसेहिं ।
फलमउलं कडुअरसं, तं चेव निसेवए जीवो ॥१२८॥ .: शब्दार्थ - आश्चर्य है कि राग-द्वेष के कारण जो अकार्य (अनिष्ट) होते हैं उन्हें; तथा उनके अत्यंत कड़वे रस (परिणाम) वाले फल को जानता हुआ भी जीव उसी का अमृतरस की बुद्धि से बार-बार सेवन करता है। धिक्कार है ऐसे संसारासक्त जीवों को! ।।१२८।।
को दुक्खं पाविज्जा?, कस्स व सुक्नेहिं विम्हिओ हुज्जा? । को न वि लभिज्ज मुक्खं, रागदोसा जइ न हुज्जा ॥१२९॥
शब्दार्थ - यदि जगत् में राग-द्वेष न होते तो कौन दुःख प्राप्त करता; कौन सुख को देखकर विस्मित (चकित) होता और अक्षय अव्याबाध मोक्ष-सुख से कौन वंचित रहता? ।।१२९।। अर्थात्-कोई भी दुःख भोगने के लिए यहाँ न रहता, सभी जीव मोक्ष में चले जाते।
माणी गुरु-पडिणीओ, अणत्थभरिओ अमग्गचारी य ।।
मोहं किलेसजालं, सो खाइ जहेब गोसालो ॥१३०॥
शब्दार्थ - जो शिष्य अभिमानी है, गुरु के विरुद्ध चलता है, अपने अशुद्ध स्वभाव के कारण अनर्थों से भरा हुआ है और संयममार्ग के विपरीत चलता है, उसका तप-संयमादि कष्टसहन व्यर्थ हो जाता है, जैसे गोशालक का हुआ था ।।१३०।।
____ भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तथाकथित शिष्याभास गोशालक ने तप-संयम आदि अनेक कष्ट सहन किये, मगर उसमें उपर्युक्त दोष होने से अपने तप संयमादि का उसे कोई सुफल प्राप्त नहीं हुआ ।।१३०।।
कलहण-कोहणसीलो, भंडणसीलो विवायसीलो य । जीवो निच्चुज्जलिओ, निरत्थयं संजमं चरइ ॥१३१॥
शब्दार्थ - जो साधक सदा कलह और क्रोध करता रहता है, हमेशा अपशब्द बोलता रहता है तथा विवाद (व्यर्थ का झगड़ा) करता रहता है; वह हमेशा (कषायाग्नि में) जलता रहता है। ऐसे व्यक्ति का संयमाचरण निरर्थक है।।१३१ ।।
भावार्थ - कषाय से कलुषित रहने वाले साधु का चारित्रपालन निष्फल जाता है। परस्पर जोर-जोर से आवेश में आकर बोलना कलह कहलाता है, दूसरे
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