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निमित्तादि एवं गृहस्थ का अतिसंसर्ग मूलगुण घातक श्री उपदेश माला गाथा ११६-११८ अनेक पापोपदेशक करने से दूसरों से करवाने से या करने वाले का समर्थन-अनुमोदन करने से साधु के तप-संयम का क्षय हो जाता है ।।११५।। इसीलिए मुनि साधुधर्म के विपरीत ऐसे आचरण कदापि न करें।
जह-जह कीरइ संगो, तह-तह पसरो खणे-खणे होइ । थोयो वि होई बहुओ, न य लहइ धिइं निरंभंतो ॥११६॥
शब्दार्थ - साधु (इस दृष्टि से) ज्यों-ज्यों गृहस्थों का परिचय करता जाता है. त्यों-त्यों उसका फैलाव क्षण-क्षण (दिनोंदिन) बढ़ता जाता है। और एक दिन वह थोड़ा-सा परिचय भी बहुत ज्यादा हो जाता है। फिर गुरु आदि के द्वारा उस साधु को रोक-टोक करने पर भी वह रुकता नहीं, धैर्य धारण नहीं करता ।।११६।। आखिरकार वह साधु संयम से भ्रष्ट हो जाता है। इसीलिए (अर्थ-काम-दृष्टि से) गृहस्थों का परिचय साधु न करें।
जो चयइ उत्तरगुणे, मूलगुणे वि अचिरेण सो चयइ । जह-जह कुणइ पमायं, पेलिज्जड़ तह कसाएहिं ॥११७॥
शब्दार्थ - जो मुनि उत्तर-गुणों को छोड़ता जाता है, वह शीघ्र ही एक दिन मूल-गुणों को तिलांजलि दे देता है। साधु संयम पालन में जैसे-जैसे प्रमाद करता है, वैसे-वैसे क्रोधादिकषायों से पीड़ित होता जाता है ।।११७।।
___ भावार्थ - जो मुनि पिण्डविशुद्धि, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, पाँच समिति, तीन गुप्ति आदि उत्तरगुणों को छोड़ देता है, वह समय पाकर शीघ्र ही अपने प्राणातिपातविरमण (अहिंसा) आदि पंचमहाव्रत रूपी मूलगुणों से भी च्युत हो जाता है। क्योंकि उत्तरगुणों के नाश से मूलगुणों का एक दिन नाश हो जाता है। साधु जीवन के मौलिक नियमों के पालन में ज्यों-ज्यों प्रमाद, शिथिलता या असावधानी बरती जायगी, त्यों-त्यों उसमें अनेक दोष घुसते जायेंगे। फिर दोषों को छिपाने या उन्हें गुण सिद्ध करने के लिए साधु में क्रोध, अभिमान, कपट और लोभ आदि का उद्भव होगा। यानी संयमपालन में ढिलाई आने से सर्वप्रथम उत्तरगुण लुप्त होते जायेंगे, तत्पश्चात् कषायों के भड़कने से मूलगुणों का भी सफाया हो जायगा। इसीलिए साधु उत्तरगुणों को किसी हालत में न छोड़े। और प्रमाद, शैथिल्य, असावधानी व अविवेक को छोड़कर अपनी तप-जप-संयमसाधना में सदा तल्लीन रहे. ॥११७|| ... जो निच्छएण गिण्हइ, देहच्वाए वि न य धिई मुयइ ।
सो साहेइ सज्जं, जह चंदवडिंसओ राया ॥११८॥
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