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________________ वरदत्तमुनि की कथा श्री उपदेश माला गाथा ११३ चन्द्रयशा के संयोग से सुजातकुमार को भयंकर रोग हो गया। चन्द्रयशा इससे बड़ी दुःखी हुई और पछताने लगी-"धिक्कार है मझे! मेरे संयोग से मेरे पति को रोग लग गया।" सुजातकुमार ने उसे आश्वासन देते हुए कहा- "सुलोचने! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। दोष मेरे ही अशुभकर्मों का है। तुम धैर्य रखो। वास्तव में यह शरीर ही रोगों का घर है। इस निन्द्य शरीर के द्वारा विषयभोगों में फंसकर हमने अपना जीवन बिगाड़ डाला।'' इन वचनों से चन्द्रयशा को प्रतिबोध हुआ। उसने वैराग्य पूर्वक अनशन ग्रहण करके समाधि पूर्वक मृत्यु स्वीकार की, जिससे वह मरकर देवता बनी। वहाँ जाकर अवधिज्ञान से उसने अपना पूर्वभव जाना और सुजातकुमार के पास आकर कहने लगी- "स्वामिन्! आपकी कृपा से मैं चन्द्रयशा का जीव देव हुआ हूँ। मेरे योग्य कोई सेवा हो तो कहिए।'' सुजातकुमार ने सम्यग् धर्माराधन का फल जानकर अपनी इच्छा प्रकट की-"यदि तुम सेवा करना चाहती हो तो मेरा कलंक निवारण करके मुझे अपने माता-पिता के पास पहुँचा दो, ताकि मैं भी मुनि दीक्षा अंगीकार करके धर्माराधन कर सकू।" देव ने सुजातकुमार की इच्छानुसार सारा कार्य कर दिया। पहले सुजातकुमार को उसने चम्पानगरी के उद्यान में पहुँचाया। फिर नगरी के जितनी चौड़ी एक शिला बनाकर आकाश में खड़े होकर चन्द्रप्रभ राजा को डराया और धमकाया- 'अरे नराधम! तूंने सुजातकुमार पर कलंक लगाकर उसके विरुद्ध आचरण क्यों किया?" राजा भय से कांपता हुआ देव के पास हाथ जोड़कर खड़ा हुआ और देव से तथा सुजातकुमार से उसने चरणों में पड़कर क्षमायाचना की। देव ने भी अपनी माया समेट ली। इसके बाद सुजातकुमार को राजा ने हाथी पर बिठाकर धूमधाम से गाजे-बाजे के साथ नगरी में प्रवेश कराया। सुजातकुमार भी घर पहुँचकर अपने माता-पिता के चरणों में गिरा और उनकी आज्ञा लेकर पिता के साथ मुनि दीक्षा ग्रहण की और भलीभांति संयम पालन कर केवलज्ञान प्राप्त करके वे मोक्ष पहुँचे। सुजातकुमार से प्रभावित राजा ने धर्मघोषमंत्री को देशनिकाला दे दिया। उसके पुत्रों और पत्नियों ने भी उसे बहुत धिक्कारा। मंत्री धर्मघोष घूमता घामता राजगृह पहुँचा। वहाँ एक स्थविर मुनि से उसने दीक्षा ली और शास्त्रों का भलीभांति अध्ययन करके गीतार्थ हुआ। विहार करते-करते एक बार धर्मघोषमुनि वरदत्तनगर पहुँचे। एक दिन वहाँ के वरदत्त नामक मंत्री के यहाँ वे गौचरी के लिए पधारें। वरदत्त मंत्री ने खीर का बर्तन उठाकर कहा- "स्वामिन्! यह निर्दोष आहार है; इसे ग्रहण कीजिए। संयोगवश उस बर्तन में से खीर की एक बूंद नीचे गिर पड़ी। यह देख धर्मघोष मुनि उस आहार को लिए बिना ही 212
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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