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________________ ... स्थिरवासी साधुओं को चेतावन, गृही संसर्ग श्री उपदेश माला गाथा १११-११३ अगर एक ही स्थान पर नित्य रहना पड़े तो चारित्र (संयम) में भलीभांति प्रयत्नशील रहना चाहिए। जैसे उस समय में वृद्धावस्थादि कारणों से आचार्य संगम स्थविर स्थिरवासी होते हुए भी चारित्र में प्रयत्नशील थे; देव भी उनसे प्रभावित होकर उनके सान्निध्य में रहता था ।।११०।। ___ भावार्थ - यदि किसी कारणवश एक ही स्थान पर चिरकाल तक स्थायी रहना पड़े तो संयममार्ग में खूब सावधानी रखनी चाहिए; ताकि गृहस्थों के अतिसंसर्ग से रागद्वेष-मोह आदि दोष पैदा न हों। जैसे आचार्य संगमस्थविर वृद्धावस्थादि कारणों से एक ही स्थान पर रहते थे, मगर संयममार्ग में बड़ी सावधानी रखते थे। उनके अप्रमत्त होकर संयमपालन से प्रभावित होकर देव भी उनकी सेवा करता था ॥११०|| एगंत नीयावासी, घरसरणाईसु जह ममत्तं पि । कह न पडिहंति कलिकलुस-रोसदोसाण आवाए ॥१११॥ शब्दार्थ - बिना किसी विशेष कारण के एक ही स्थान पर हमेशा जमा रहने वाला साधु अगर मोह-ममता के कारण अगर उस मकान की मरम्मत कराने आदि दुनियादारी के काम कराता है या पैसे इकट्ठ करने-कराने आदि संसारव्यवहार में पड़ता है तो वह कलह, क्लेश, रोष, राग, (मोह) द्वेष आदि दोषों से कैसे बचा रह सकता है? प्रमादी साधु उक्त दोषों से कदापि बच नहीं सकता।।१११।। " अवि कत्तिउण जीवे, कतौ घरसरणगुत्तिसंठप्पं? । अवि कत्तिआ य तं तह, पडिआ असंजयाण पहे ॥११२॥ शब्दार्थ - घर की लिपाई-पोताई या चिनाई तथा रक्षा के लिए दीवार बनाने आदि कार्य जीवों के वध बिना कैसे हो सकते हैं? इसीलिए जो साधु जीवघातक गृहकार्यादि आरंभो में सीधे पड़ते हैं, उन्हें असंयममार्ग के पथिक जानना चाहिए।।११२।। भावार्थ - उपाश्रय आदि धर्मस्थानों को घर समझकर उन पर ममत्व रखकर रहना, उनकी सारसंभाल करना, मरम्मत कराना, उनकी रक्षा के लिए चारों ओर दीवार या बाड़ खड़ी करवाना इत्यादि कार्यों से जीवहिंसा होती है, यह प्रत्यक्ष असंयम का मार्ग है। सुविहित साधु को ऐसे कामों में सीधे नहीं पड़ना चाहिए ।।११२।। थोवोऽ वि गिहिपसंगो, जड़णो सुद्धस्स पंकमावहइ । जह सो वारत्तरिसी, हसिओ प्रज्जोय-नवड़णा ॥११३॥ 1. वर्तमान में तीर्थधाम बनानेवाले मुनि असंयम के मार्ग पर है यह स्पष्ट होता है। 210
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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