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श्री उपदेश माला गाथा १०१-११०
अज्ञान तप का फल पूरण तापस वाला, दूसरों से धर्माचरण कराने वाला और धर्माचरण करने वाले की अनुमोदना करने वाला तीनों को समान फल मिलता है।' अतः धर्माचरण में उद्यम करो; यही इस कथा का मूल उपदेश है ।।१०८।। ।
____जं तं कयं पुरा पूरणेण, अइदुक्करं चिरं कालं ।
जइ तं दयावरो इह, करितु तो सफलयं हुँतं ॥१०९॥
शब्दार्थ - पूरण नाम के तापस ने जो पहले अतिदुष्कर तप चिरकाल तक किया था, वही तप यदि दयापरायण होकर किया होता तो सफल हो जाता ।।१०९।।
भावार्थ - पूरणतापस ने जो अज्ञान पूर्वक बारह वर्ष तक तप किया। उसके फल स्वरूप वह चमरेन्द्र तो बना, मगर भवभ्रमण का अंत करने वाले मोक्ष के निकट नहीं पहुंचा। प्रसंगवश यहाँ पूरण तापस की कथा दे रहे हैं
पूरण तापस की कथा . विन्ध्याचल पर्वत की तलहटी में पेढाल नाम का गाँव था। वहाँ पूरण नाम का एक सेठ रहता था। उसने एक दिन विरक्त होकर अपने पुत्र को गृहभार सौंपकर तामलि तापस की तरह तापस- दीक्षा ले ली। वह निरंतर दो-दो उपवास (छट्ठ-छ? तप) करने लगा। पारणे के दिन वह चार खानों वाला एक भिक्षापात्र झोली में डालकर ले जाता और पहले खाने में जो आहारादि पड़ता उसे पक्षियों को दे देता, दूसरे खाने में जो आहारादि पड़ता उसे जलचर जीवों को दे देता, तीसरे
खाने में जो आहारादि पड़ता, वह स्थलचर जीवों को दे देता, और चौथे खाने में · जो आहारादि आता उसे स्वयं खाता था। इस प्रकार का अतिकठोर अज्ञानमय तप उसने १२ वर्ष तक किया। जिंदगी के अंतिम दिनों में उसने एक मास की संलेखना पूर्वक संथारा (अनशन) किया और काल प्राप्त कर चमरचंचा नामक राजधानी में चमरेन्द्र हुआ।
पूरण तापस ने जितना घोर तप अज्ञान पूर्वक किया, उतने ही ज्ञान पूर्वक तप करता तो उसे बहुत सुफल प्राप्त होता। यही इस कथा का मुख्य उपदेश है।।१०९॥
कारण नीयावासे, सुट्ठयरं उज्जमेण जइयव्यं । जह ते संगमथेरा, सपाडिहेरा तया आसि ॥११०॥ शब्दार्थ - वृद्धावस्था, रुग्णता, अशक्ति, विकलांगता आदि किसी कारणवश
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