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________________ श्री उपदेश माला गाथा ७८-८१ साधु वचन-वान तप माणंसिणो वि अवमाण-वंचणा ते पस्स ते न करेंति । सुह दुक्खग्गिरणत्थं, साहू उयहिव्य गंभीरा ॥८॥ शब्दार्थ - इन्द्रादिक के द्वारा सम्माननीय साधु दूसरों का अपमान या दूसरों के सुख को उच्छेदन करने व दुःख में डालने के लिए वंचना (ठगी) नहीं करते। वे तो सागर की तरह गंभीर होते हैं ।।८।। भावार्थ - मुनिराज इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के द्वारा पूजा-सत्कार से युक्त होते हैं; फिर भी दूसरों का अपमान नहीं करते तथा दूसरों को ठगते भी नहीं है। वे सुख-दुःख को समभाव से भोगकर कर्म का क्षय करने के लिए निज स्वभाव में रमण करते हैं। ऐसे मुनि सागर जैसे गंभीर होते हैं। वे समुद्र की तरह अपनी मर्यादा में ही रहते हैं। साधुत्व की मर्यादा का उल्लंघन करके वे दूसरों को पीड़ा नहीं देते ॥७८॥ मउआ निहअसहावा, हासदवविवज्जिया विग्गहमुक्का । असमंजसमइबहुअं, न भणंति अपुच्छिया साहू ॥७९॥ शब्दार्थ - साधु मृदु और शांत स्वभाव वाले होते हैं, हास्य और भय से दूर होते हैं, वे कलह, विकथा आदि से भी मुक्त होते हैं; पूछने पर भी वे असंबद्ध नहीं बोलते ॥७९॥ भावार्थ - अहंकाररहित, मृदु और शांत स्वभाव वाले, हास्य, भय और ईर्ष्या से रहित एवं देश-कथा, राज-कथा, भक्त-कथा और स्त्री-कथादि विकथा या कलह से दूर रहने वाले तथा असंबद्ध वचन नहीं बोलने वाले मुनि बिना पूछे नहीं बोलते। मुख्यतः वह मौन भाव को धारण करते हैं। किसी के पूछने पर मुनि कैसे बोलते हैं, वह कहते हैं ॥७९।। महुरं निउणं थोयं, कज्जावडिअं अगब्वियमतुच्छं । . पुस्विंमइसंकलियं, भणंति जं धम्मसंजुत्तं ॥८०॥ — शब्दार्थ - साधु मधुर, निपुणता से युक्त, नपे तुले शब्दों में, प्रसंग होने पर, गर्व रहित, तुच्छता रहित और पहले से भलीभांति बुद्धि से विचार करके, धर्मयुक्त और सत्य वचन बोलते हैं। प्राणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी वे अधर्मयुक्त वचनों का उच्चारण नहीं करते ।।८०॥ सद्धिं वाससहस्सा, तिसत्तनुत्तोदएण धोएणं । । अणुचिण्णं तामलिणा, अन्नाणतयुत्ति अप्पफलो ॥८१॥ 2 167
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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