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________________ गुणवान के प्रति ईर्ष्या करना तत्त्वज्ञसाधु के लिए उचित नहीं श्री उपदेश माला गाथा ६५-६६ वही विचारक है, जो दुष्ट दुःशील मनुष्यों के कुसंसर्ग में पड़ जाने पर भी तथा पापी मित्रों से बुरे कार्यों में प्रेरित किये जाने पर भी अथवा सुंदरियों द्वारा आमंत्रित किये जाने पर भी अकार्य (मैथुन सेवन आदि) करने को तैयार नहीं होता ।।६४।। अर्थात् विषय-विकार पैदा होने के प्रत्यक्ष निमित्त एवं वातावरण मिलने पर भी जो निर्विकारी रहता है, वस्तुतः वही धीर, वीर और गंभीर है। उसीका आत्मस्वरूप चिंतन प्रमाणभूत है। अन्य सब वाणीशूरों का चिंतन अप्रामाणिक है।।६४॥ पागडियसव्वसल्लो, गुरुपायमूलंमि लहइ साहूपयं । अविसुद्धस्स न वड्डइ, गुणसेढी तत्तिया ठाइ ॥६५॥ शब्दार्थ - गुरु के चरणों में जो अपने समस्त शल्यों को खोलकर रख देता है; वही वास्तव में साधुपद को प्राप्त करने वाला है। परंतु जो व्यक्ति दोष-शल्यों से रहित होकर विशुद्ध नहीं बनता, उसकी गुणश्रेणी आगे नहीं बढ़ती, वह वहीं स्थिर हो (अटक) जाता है ।।६५।। भावार्थ - तत्त्ववेत्ता गीतार्थ गुरुदेव के समक्ष जो सरलभाव से अपने सब दोषों को ज्यों के त्यों प्रकट करके, आलोचना करके निःशल्य हो जाता है, वहीं वास्तव में साधुत्व के आराधकपद को प्राप्त करता है। जो (लक्ष्मणा साध्वी की तरह) मन में शल्य (कपट) रखकर आलोचना करता है, वह आराधक नहीं हो सकता। ऐसा साधक ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूपी गुणों की श्रेणी में आगे विकास नहीं कर सकता; वहीं अटक जाता है ॥६५।। जइ दुक्करदुक्ककारओत्ति, भणिओ जहट्ठिओ साहू । तो कीस अज्जसंभूअविजय-सीसेहिं नवि खमियं? ॥६६॥ शब्दार्थ - अगर अपने ज्ञानादि आत्मस्वभाव में स्थित स्थूलभद्र मुनि को उनके गुरु आचार्य सम्भूतिविजय ने तीन बार दुष्करकारक कह दिया तो इसे उनके सिंहगुफावासी मुनि आदि अन्य शिष्यों ने सहन क्यों नहीं किया? ।।६६।। भावार्थ - सद्गुरु केवल गुणों के पक्षपाती होते हैं। वे गुणवान् शिष्य की प्रशंसा करते ही है। इससे अन्य शिष्यों को ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। क्योंकि ईर्ष्या का नतीजा हमेशा बुरा ही होता है। ईर्ष्या करने से गुरु की आशातना-अवहेलना होती है। कोशा वेश्या प्रतिबोधक स्थूलिभद्र मुनि जब गुरु के पास आये तो उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें तीन बार दुष्कर-दुष्करकारक कहकर शाबाशी दी। परंतु यह बात ईर्ष्यालु सिंहगुफावासी मुनि को बिलकुल अच्छी न लगी। वह मन ही मन जल 162
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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