________________
श्री उपदेश माला गाथा ६२-६४ अब्रह्मचर्यसेवन और स्त्रीसंसर्ग से साधुजीवन का नाश सीधे अपने गुरु के पास आया। सर्वप्रथम मुनि स्थूलभद्र के चरणों में नमन करके क्षमायाचना की और कहा- "मुनिवर! धन्य है आपको! ऐसा दुष्करकार्य आप ही कर सकते हैं। मेरे जैसा सत्त्वहीन पुरुष आपके दुष्करकार्य की महत्ता को नहीं जान सका।" इसके पश्चात् उसने गुरुदेव से निवेदन किया- "स्वामिन्! आपने मुनि स्थूलभद्रजी को तीन बार दुष्करकार्य करने को कहा था, वह वास्तव में यथार्थ था, मैं अपनी मूर्खतावश उस पर अश्रद्धा लाकर मुनि स्थूलिभद्रजी को नीचा दिखाने के लिए आपकी आज्ञा की परवाह न करके चल पड़ा वेश्या के यहाँ चौमासा करने के लिए। परंतु आपने जैसा कहा था वैसा ही हुआ। मुझे क्षमा करें गुरुदेव! और आलोचना के अनुसार मुझे प्रायश्चित्त देकर शुद्ध कीजिए।" यह कहकर उसने गुरुजी के सामने शुद्ध हृदय से सारी आलोचना यथार्थरूप से की और प्रायश्चित्त के रूप में पुनः महाव्रत ग्रहण करक शुद्ध हुआ और सुगति का अधिकारी बना ॥६१॥ इस कथा का तात्पर्य है-गुरुमहाराज की आज्ञा का पालन करना।
जेट्ठव्ययपव्वयभर-समुबहणववसियस्स, अच्वंतं ।
जुवइजणसंवइयरे, जड़त्तणं उभयओ भटुं ॥२॥
शब्दार्थ - मेरुपर्वत के समान महाव्रतों के भार को जीवन पर्यन्त निभाने में अत्यंत उद्यमशील मुनि को युवतियों का अतिसम्पर्क उपर्युक्त कथा के अनुसार द्रव्य
और भाव दोनों प्रकार से भ्रष्ट करने का कारण बनता है। इसीलिए मुमुक्षु साधक को स्त्रियों के परिचय से अवश्य बचना चाहिए ।।२।। - जड़ ठाणी जड़ मोणी, जड़ मुंडी वक्कली तबस्सी वा ।
पत्थन्तो अ अबंभं, बंभावि न रोयए मज्झं ॥६३॥
शब्दार्थ - कोई व्यक्ति चाहे कितना ही कायोत्सर्ग-ध्यान-करता हो, मौन रखता हो, मुंडित हो, (यानी सिर के बालों का लोच करता हो) वृक्षों की छाल के कपड़े पहनता हो, अथवा कठोर तपस्या करता हो, यदि वह मैथुनजन्य विषयसुख की प्रार्थना करता हो तो चाहे वह ब्रह्मा ही क्यों न हो, मुझे वह रुचिकर नहीं लगता विषयसुख में आसक्त व्यक्ति साधु होने का डोल करके चाहे जितना शरीर को कष्ट दे, वह सब निष्फल, निष्प्रयोजन है ।।३।।
तो पढियं तो गुणियं, तो अ मुणियं चेइओ अप्पा । आवडियपेल्लियामंतिओ वि जइ न कुणइ. अकज्जं ॥६४॥ शब्दार्थ - वास्तव में वही मनुष्य पढ़ा-लिखा है, वही समझदार है और
- 161