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श्री उपदेश माला गाथा ४८
श्री वज्रस्वामी की कथा करना, यहाँ तक कि स्पर्श करना भी अनर्थकर है। कहा भी है
वरं ज्वलदयःस्तम्भ-परिरम्भो विधीयते ।
न पुनर्नरकद्वाररामा-जघनसेवनम् ॥६०॥ अर्थात् - जलते हुए लोहे के खंभे का आलिंगन करना अच्छा, मगर नरक के द्वार समान नारी के जघन का सेवन करना अच्छा नहीं है ॥६०॥
वास्तव में, मोह की निवासस्थली रूप नारी का शरीर जीवों के लिए पाशबंधन के समान है। अनुभवियों का भी कथन है
आवर्तः संशयानामविनयभवनं, पत्तनं साहसानां, दोषाणां सन्निधानं कपटशतमयं क्षेत्रमप्रत्ययानाम् । स्वर्गद्वारस्य विघ्नं, नरकपुरमुखं सर्वमायाकरण्डं, स्त्रीयन्त्रं केन सृष्टं विषयमृतमयं प्राणिनामेकपाशः ॥६॥
अर्थात् - स्त्री संशयों का भंवरजाल है, अविनय का घर है, साहसों का व्यापारिक नगर है, दोषों का खजाना है, सैकड़ों कपटों की पुतली है, अविश्वासों का क्षेत्र है, स्वर्ग के द्वार की रुकावट है, नरकपुरी का मुख है, समस्त माया की पिटारी है। न जाने किसने प्राणियों को फंसाने के लिए एकमात्र जालरूप तथा विषय-विषमय इस स्त्री यंत्र को बनाया है ॥६१।।
आश्चर्य है कि लोगों को विषमयी होने पर भी स्त्री अमृतमयी लगती है! धन्य है, जिसने स्त्रीसंग का परित्याग किया है उन्हें! ब्रह्मचारियों को स्त्री-संग से सर्वदा दूर रहना चाहिए; रागदृष्टि से उसके अंगोपांग भी नहीं देखने चाहिए। क्योंकि नीतिकार कहते हैं
स्नेहं मनोभवकृतं जनयन्ति नार्यो, नाभी-भुज-स्तन-विभूषण-दर्शितानि । वस्त्राण्यसंयमित-केश-विमोक्षणानि, भ्रूक्षेपकम्पितकटाक्ष-निरीक्षणानि ॥६२॥
अर्थात - नारी अपनी नाभि, भुजाएँ, स्तन, आभूषण, वस्त्र आदि तथा अपने बिखरे हुए खुले केशों को दिखाकर एवं अपने नेत्र की भौंहे फेंककर व चंचल कटाक्ष दिखाकर पुरुष के मन में काम जनित स्नेह (आसक्ति) पैदा कर देती है ॥६२।।
"अतः विश्व में विष से भी अधिक विषम-विषय का वर्णन करना भी बुरा है, तो फिर इसका सेवन करना तो और भी बुरा क्यों न होगा? और जो ज्ञान और क्रिया रूप दोनों पंखों से शुद्ध मुनिराज हंस सुमति-हंसनी के साथ धर्मसंघ रूपी मानसरोवर में एकत्रित हुए हैं तथा निर्मल शुक्लध्यान रूपी मुक्ताफल में लीन हैं, तथा जड़ और चैतन्य का, स्वभाव और विभाव का विवेक-पृथक्करण
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