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________________ चिलातीपुत्र की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३८ के संस्कारवश शरीर और वस्त्रों के मैले हो जाने पर भी समभाव पूर्वक सहन करने के परिषह को लेकर धर्म की निन्दा करने लगा। कभी-कभी सोचने लगा- 'यह मुनिधर्म का मार्ग अन्य सभी मार्गों से अच्छा है, लेकिन इसमें स्नान-प्रक्षालन आदि का निषेध होने से महानिन्दा का कारण है।' यद्यपि मलपरिषह उसे असह्य लगता था, फिर भी चारित्रनाश के भय से वह स्नानादि द्वारा शरीर आदि का प्रक्षालन नहीं करता था। एक दिन यज्ञदेव मुनि के उपवास का पारणा था। वे भिक्षा के लिए घूमते-घूमते 'कपोतवृत्ति' न्याय से अपनी पूर्वाश्रम की पत्नी के यहाँ जा पहुँचे। उसने अपने पति को देखा तो मोहवश पूर्वस्नेह के कारण उन पर सम्मोहन-प्रयोग किया, उससे दिनों-दिन उनका शरीर दुर्बल होने लगा। उनका शरीर जब सूखकर कांटा हो गया तो वे अन्यत्र विहार करने में अशक्त हो गये। अपना अंतिम समय नजदीक जानकर उन्होंने आजीवन अनशन (संथारा) कर लिया और कालधर्म (मृत्यु) प्राप्त करके वहाँ से देवलोक में पहुँचे। मुनि की पूर्वाश्रम की पत्नी को जब यह पता लगा तो वह अत्यंत पश्चात्ताप करने लगी- 'हाय! मैं क्या जानती थी कि मेरे सम्मोहन प्रयोग से उनका शरीर छूट जायगा। धिक्कार है मुझे! मैंने अपने पति की हत्या का महापाप किया! इस मुनिहत्या से मुझे नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा! मैं अशरण और अनाथ अब कहाँ जाऊँ? यह श्रमणधर्म का वेश ही अब मेरे लिये शरणदाता बनेगा।" यों सोचकर उसने संसार से विरक्त होकर एक चारित्रशीला साध्वी से दीक्षा ले ली। साध्वी बनने के बाद उसने ज्ञानाभ्यास के साथ-साथ कठोर तपश्चर्या की और सम्यग् रूप से महाव्रतों की आराधना करके अंतिम समय में अपने पूर्व पापों की भलीभांति आलोचना-निन्दा करके प्रायश्चित्त ग्रहण कर, शुद्ध होकर वहाँ से मरकर वह देवलोक में पहुंची। दूसरे भव में यज्ञदेव मुनि का जीव देवलोक से आयुष्य पूर्ण करके पूर्वजन्म में साधुधर्म की निन्दा करने के कारण उपार्जित नीचगोत्रकर्म के फल स्वरूप राजगृह नगर में धनावह सेठ की दासी चिलाती की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। सब लोग उसे 'चिलातीपुत्र' कहने लगे। उसकी पत्नी-जो बाद में साध्वी बनी थी-का जीव देवलोक से आयुष्य पूर्णकर उसी सेठ धनावह के घर में उसकी पत्नी भद्रा की कुक्षि से पुत्री रूप में उत्पन्न हुई। उसका नाम रखा गया'सुसुमा।' चिलातीपुत्र कुछ बड़ा हो जाने पर सेठ की लड़की सुसुमा को हरदम खेलाता था। पूर्वजन्म के संस्कारवश चिलातीपुत्र का सुसुमा के प्रति अत्यंत स्नेह 108 -
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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