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________________ जम्बूस्वामी की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३७ उसका सम्मान किया। फिर अपने पास बिठाकर उससे कुशल समाचार पूछा। मंत्री ने अपनी सारी आपबीती सुनाई और उस मित्र से सहायता और शरण की याचना की। प्रणाम मित्र ने मंत्री को आश्वासन देते हुए कहा - " आप जरा भी न घबराएँ । जब तक मेरे दम में दम है, तब तक कोई भी आपका बाल बांका नहीं कर सकता। मैं आपको ऐसी जगह आश्रय दूंगा; जहाँ आपकी पूरी सुरक्षा रहेगी। वहाँ राजा भी आपका अनिष्ट नहीं कर सकता।" ऐसा कहकर मंत्री को उसने एक सुरक्षित व भयमुक्त स्थान पर पहुंचा दिया; जहाँ निश्चिन्त होकर मंत्री सुख म्पूर्वक रहने लगा। कुछ ही दिनों में उसका अपराध झूठा प्रतीत होने पर राजा ने मंत्री को दण्डमुक्त भी घोषित कर दिया। ये तीनों मित्र सुबुद्धि मंत्री - रूपी सांसारिक जीव के साथ लगे हुए हैं। कहा भी है नित्यमित्रसमो देहः स्वजनाः पर्वसन्निभाः । जुहारमित्रसमो ज्ञेयो धर्मः परमबान्धवः ||४१|| अर्थात् शरीर नित्य मित्र के समान है, स्वजन सम्बन्धी - पर्व मित्र के समान हैं और प्रणाम मित्र के समान वीतरागभाषित धर्म है, जो जीव का परमबन्धु है ।।४१।। क्रूरराजा के समान कर्मराजा है; जो सुबुद्धि रूपी सांसारिक जीव को अपराध होने पर सजा सुनाता है। परंतु उस समय न तो नित्यमित्र - शरीर ही उसे सहायता पहुँचाता है और न पर्वमित्र- स्वजनसम्बन्धी ही उसे शरण देते हैं। एकमात्र प्राणममित्र - धर्म ही; अंतिम समय में जो उसकी शरण में जाता है, उसे शरण देता है, कुशलक्षेमपूर्वक उसे अपने स्थान पर पहुँचाता है। इसीलिए हे भद्रे ! मैं अक्षय सुख देने वाले परममित्र धर्म की उपेक्षा कदापि नहीं करूँगा । " अंत में धनावह सेठ की पुत्री, आठवीं धर्मपत्नी जयश्री जम्बूकुमारजी से कहने लगी-‘“प्राणनाथ ! इतना वादविवाद क्यों छेड़ रहे हैं आप? हमने आपके साथ अभी नई ही शादी की है; इसीलिए हमारा आपके साथ वृथा विवाद में उतरना ठीक नहीं है। परंतु आप ऐसी कल्पित मनगढत कहानियाँ सुनाकर हमें ठगते क्यों हैं? आपने जितनी भी कहानियाँ कहीं, वे सब कल्पित है। जैसे एक ब्राह्मणीपुत्री ने कल्पित कहानियों से राजा का मनोरंजन किया था, वैसे आप भी कल्पित कहानियों से हमारा मन बहलाना चाहते हैं।" जयश्री के कथन का बाकी सब स्त्रियों पर अच्छा प्रभाव पड़ा। उन सबने उससे कहा - "बहन जयश्री ! ऐसी प्रभावोत्पादक कथा सुनाओ, जिसे सुनकर अपने प्रियतम घर में ही रह जाय। " जयश्री कहने लगी- " तो लो सुनो" - 100
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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