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________________ जम्बूस्वामी की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३७ जबाव दे दिया—''तुम चाहे जितना जोर लगा लो, मैं इसे कदापि नहीं छोड़ सकता । मेरी माता ने कह रखा है - जिसे पकड़ो, उसे कभी मत छोड़ो।" लोग आगे चल दिये। किन्तु मूर्ख अपने कदाग्रह के कारण कष्ट पाता रहा। इसीलिए हम कहती हैं कि आप भी अपना मिथ्या आग्रह ( हठ ) छोड़ दें, नहीं तो इसी तरह कष्ट पाना पड़ेगा।" यह सुनकर जम्बूकुमार मुस्करा कर बोले - "प्रिये ! तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है। तुम सब खर ( गधे ) के सरीखी हो और तुम में आसक्त होकर बंधे रहना मेरे लिये खर की पूंछ को पकड़े रहने के समान है। मुझे अब उसे पकड़े रहना उचित नहीं है। तुम सबका लज्जावती महिलाएं होकर इस प्रकार के तीखे वचन कहना उचित नहीं है। ऐसे वचनों को तो वही सहन करता है, जिसके रहने का कहीं ठौर-ठिकाना न हो; जो उस ब्राह्मण की तरह पूर्वभव का कर्जदार हो, वही उस घर में दास बनकर रहता हैं। लो सुनो, मैं तुम्हें उस ब्राह्मण का उदाहरण सुनाता हूँ "कुशस्थलपुर में एक क्षत्रिय था। उसके यहाँ एक घोड़ी थी। उसकी सेवा के लिए उसने एक नौकर रखा। नौकर ऐसा हराम था कि घोड़ी के लिए मालिक से जो खाना मिलता था, उसे वह खुद चुपके से चट कर जाता था। रोजाना इस तरह करने से घोड़ी को खाना न मिलने के कारण वह बहुत कमजोर हो गयी, उसकी हड्डियाँ निकल आयी और कुछ ही दिनों में वह घोड़ी मर गयी। घोड़ी मरकर उसी नगर में वैश्या के यहाँ पैदा हुई और जवान होने पर वह भी वेश्या बन गयी। इधर वह नौकर मरकर ब्राह्मण के यहाँ पैदा हुआ। एक दिन उस नौजवान ब्राह्मणपुत्र ने उस वेश्या को देखा। देखते ही पूर्वजन्म के सम्बन्ध (ऋणानुबन्ध) के कारण वह उस वेश्या के यहाँ नौकरी करने लगा। वह वेश्या के यहाँ घर का सब काम पूरा कर लेता; तभी उसे खाना मिलता था। इस तरह जिंदगीभर अपना कर्ज चुकाने, और सुख सुविधा पाने की आशा से वह दास बन कर रहा। मगर मैं उसकी तरह भोगों की आशा का दास बनकर घर में अब क्षणमात्र नहीं रहूंगा।'' इस पर उनकी सातवीं पत्नी रूपश्री कहने लगी- " नाथ ! इस समय आप हमारा कहना नहीं मानते, लेकिन बाद में आपको मासाहस पक्षी की तरह संकट उठाने पड़ेंगे, तब आप मानेंगे। मासाहस पक्षी की कथा इस प्रकार है, सुनिए— “मासाहंस नाम का एक पक्षी किसी जंगल में रहता था। वह पक्षी ऐसा 98
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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