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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३७ जम्बूस्वामी की कथा परंतु विद्युन्माली दुःखी हो गया। इसीलिए जो मनुष्य विद्युन्माली के समान अपने साध्य को भूलकर मातंगी के समान सुंदरियों के भोगजाल में फंस जाता है, वही दुःखी होता है? परंतु जो मेघरथ के समान स्त्री सम्बन्धी कामभोगों में विचलित न होकर अपने साध्य पर अविचल रहता है, वह सुखी होता है। इसीलिए सुखार्थी मनुष्यों को संसार के कंचन-कामिनी आदि सुखभोगों का त्याग करना ही श्रेयस्कर यह सुनकर कनकसेना नामक चौथी पत्नी बोली- "प्राणनाथ! अगर हम मातंगी के समान थीं, तो आपने हमारे साथ विवाह क्यों किया? पानी पीकर जाति पूछना उचित नहीं होता। अगर आप अपना आग्रह नहीं छोड़ेंगे तो आपको भी अतिलोभ के कारण उस कौटुम्बिक की तरह पश्चात्ताप करना पड़ेगा।" ___ "सुरपुर में एक कौटुम्बिक रहता था। वह खेती करके अपनी आजीविका चलाता था। उसने सोचा-"ये पक्षी दाना चुग जाते हैं, उन्हें आने से रोकने के लिए रात को भी शंख बजाना शुरू किया। एक दिन कुछ चोर रात को गायें चुराकर गाँव के बाहर उसके खेत के पास ले आये और वहीं पड़ाव डालने का विचार करने लगे। किन्तु रात को कौटुम्बिक की गंभीर शंखध्वनि सुनकर वे तमाम गायें वहीं छोड़कर भाग खड़े हुए। सुबह होते ही कौटुम्बिक ने उन सब गायों को बेच दी और काफी पैसा कमाकर सुख से रहने लगा। ऐसी घटना तीन बार हुई। चोथी बार वे चोर यह सारी बदमाशी कौटुम्बिक की जानकर उसके पास आये। सबने मिलकर उसे रस्सों से बांधा और मारपीटकर उसका कचूमर निकाल दिया। इसीलिए स्वामिन्! आप भी उस कौटुम्बिक की तरह अतिलोभ न कीजिए; नहीं तो आपको भी उसी प्रकार दुःखी होना पड़ेगा।" जम्बूकुमार बोला- "तुम्हारी बात सच है, जो अतिकामी और लालसापरायण होता है, वह उस तृषातुर बंदर की तरह पीड़ित होता है। लो, मैं उसकी कथा सुनाता हूँ-एक बंदर को ग्रीष्मकाल में बड़ी प्यास लगी। वह अपनी प्यास मिटाने के लिए पानी की भ्रान्ति से चिकने कीचड़ में जा गिरा। उसके शरीर में ज्यों ज्यों कीचड़ का स्पर्श होता गया, त्यों-त्यों उसे अपने शरीर में ठंडक महसूस होती गयी। मगर उसका पूरा शरीर कीचड़ से लथपथ हो जाने पर भी उसकी पिपासा शांत न हुई। बल्कि जब सूरज की तेज धूप पड़ने लगी तो वह कीचड़ सूख गया और उसके शरीर में अत्यन्त पीड़ा होने लगी। वह बंदर पीड़ा से छटपटाता रहा। इसीलिए हे प्रिये! मैं अपना शरीर उस बंदर की तरह विषयसुख रूपी कीचड़ से लिपटने नहीं दूंगा, जिससे मुझे बाद में छटपटाना पड़े।" = 95
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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