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________________ लोकरंजन किया और भिखारी बनकर भवभंजन भी हुआ। जीवन की श्रेणियों में राजा से लेकर चाण्डाल तक नाना रूप धारणकर नट की तरह इस जीवलोक में अभिनय करने वाला अभिजात कलाकार मानव कहलाया। श्री धर्मदास गणि प्राचीन कथाओं को गाथाओं में गुंफित कर उपदेश की पद्धति प्रस्तुत करते हैं। वे उपदेश और कथालोक को सम्पृक्त कर शास्त्रीय-मर्यादा का संपुट देते रहते हैं। श्री धर्मदास गणि के समक्ष जैन श्रमणसंघ का शिथिलकाल जरूर था। आंतरिक दृष्टि से ग्रंथ के उद्धरणों का अवलोकन करते हैं तो एक नवीन प्रकाश का पुंज हृदय में उतरता है। गुरु-शिष्यों के पारस्परिक संबंधों व उत्तरदायित्वों का आचरण निर्बल दृष्टिगोचर होता है। निर्लोभिता पर लेखक बल देते हैं और अतीत की कथा का प्रभाव जमाते हैं। यह ग्रंथ श्रमणसमवाय का प्रिय ग्रंथ है। अनेक टीकाकारों ने इस पर टीकाएँ लिखी। इस नित्य स्वाध्याय-ग्रंथ को यदि कोई श्रमण अहर्निश पढ़ता रहे, तो अवश्य ही सौम्य, सरल और शांत बन सकता है। श्रमण जीवन की साधना का यह ग्रंथ सोपान-मार्ग है और श्रावक जीवन की सिद्धौषधि है। यदि श्रमण वर्ग प्रशमरति और उपदेशमाला इन दोनों ग्रंथों का नित्य नियमित अध्ययन करता रहे तो अवश्य ही आत्महित में वृद्धि कर सकता है। __ मैं मुनिश्री पद्मविजयजी महाराज को सस्नेह इस बात पर विवश करना चाहता हूँ कि क्या 'उपदेशमाला' के प्रकाशन से ही आत्म-शांति का विकास . होगा? नहीं? आत्म-शांति का विकास उपदेश माला के आचरण में है। उपदेशों को अपनाकर जीवन को जगमगा कर जीवों को उपादेय मार्ग समझाएँ, वही "उपदेश माला" का अमर अनुरागी अनगार है। आचार ही उसका प्रकाशन है, व्यवहार ही उसका लेखन है, ज्ञान ही उनका संपादन है। इस प्रकाशन के भगीरथ कार्य में मनस्वी विद्वान् श्री नेमिचन्द्रजी महाराज की अलौकिक उदारता है और आचार्यदेव श्री विजयसूरीश्वरजी महाराज की सौजन्यता है। श्री पद्मविजयजी महाराज की मात्र पुरुषार्थपूर्ण साहसिक उछाल है। फिर भी परिश्रमी बनकर दिनभर नकल और अकल के रास्ते खोजते रहते हैं और शास्त्रों के प्रति निष्ठा का भाव जमाते जाते हैं। एतदर्थ मुनिश्री पद्मविजयजी भाषानुवाद के भोले भक्त बनकर तत्काल ही लेखक हो गये। यह इनका भाग्य है। संवत २०२८ शारदीय राका 'चन्द्र' . - शास्त्रजीवी दिनांक ४/१०/१९७१ पंडित गोविन्दराम व्यास पुण्यनगर (महाराष्ट्र) हरजी (राजस्थान)
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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