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________________ जम्बूस्वामी की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३७ पत्नी है; उसी के स्नेहवश मैं उससे मिलने आया हूँ। मैंने आवेशवश बड़े भाई की शर्म से मुनिदीक्षा ले ली थी, लेकिन नागिला के प्रति मन में रहा हुआ प्रेमभाव कैसे दूर हो सकता था? वह प्रेमांकुर ही मुझे यहाँ खींच लाया है। अब तो नागिला मिल जाय तो मेरा समस्त मनोवांछित कार्य सफल हो जाय।" नागिला ने मुनि के असंयम के विचारों को सुनकर उन्हें कहा- "मुनिवा! जरा विचार तो कीजिए, आप किस पद पर हैं? इस उच्च विश्ववंदनीय पद को छोड़कर नीच पद पर क्यों आना चाहते हैं आप? कौन ऐसा मूर्ख होगा, जो चिंतामणि को छोड़कर कंकर ग्रहण करेगा? जो हाथी की सवारी छोड़कर गधे की सवारी करना चाहेगा? समुद्रतारिणी नौका को दूर से छोड़कर कौन मूढ़ पत्थर की शिला का आश्रय लेगा? कल्पवृक्ष को छोड़कर कौन धतूरे के वृक्ष को उगाना चाहेगा? मैंने ब्रह्मर्चयव्रत स्वीकार कर लिया, उसे मैं हर्गिज नहीं तोड़ सकती। इसीलिए आप किम्पाकफल के समान विषयभोगों की लालसा छोड़ दें और अपने संयम में स्थिर रहे।" नागिला ने इस प्रकार का सुंदर उपदेश देकर अपने पति (भावदेवमुनि) के विचारों को बदला और उन्हें चारित्र में दृढ़ किया। पुण्यात्मा नागिला का जीव एक जन्म लेकर फिर मोक्ष प्राप्त करेगा और भावदेव मुनि चारित्र की आराधना करके ७ सागरोपम आयुष्य वाले तीसरे देवलोक के देव बनें। देवलोक का आयुष्य पूर्णकर भावदेव का जीव जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र के वीतशोक नगर में पद्मरथ राजा के यहाँ वनमाला रानी की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम रखा गया-शिवकुमार। क्रमशः यौवन अवस्था प्राप्त होने पर ५०० राजकन्याओं के साथ उसका विवाह किया गया। एक दिन महल के गवाक्ष में बैठे हुए शिवकुमार ने एक मुनि को देखा। तुरंत महल से नीचे उतरकर वह राजमार्ग पर आया और उन मुनिजी से पूछा- "आप इतना कष्ट किसलिए सहते हैं?"1 मुनि ने कहा- 'धर्म के लिए।' शिवकुमार-"वह धर्म कौन-सा और किस प्रकार का है?'' 1मुनि-"अगर तुम्हारी इच्छा धर्म के विषय में जानने और सुनने की ही तो हमारे गुरुदेव के पास चलो।" शिवकुमार उन मुनिवर के साथ उनके गुरु धर्मघोष आचार्य के पास आया। उनसे जब उसने धर्म-विषयक बातें सुनी तो ऊहापोह करने लगा, जिससे जाति (पूर्वजन्म) स्मरणज्ञान हो गया। गुरुदेव को नमस्कार कर अपने कर्तव्य का निश्चय कर वह घर आया। अपने माता-पिता से उसने मुनिदीक्षा लेने की अनुमति मांगी। परंतु माता-पिता ने उसे आज्ञा न दी। 1. हेयोपदेया टीका में पूर्वभव के भाई मुनि सागरदत्त के दर्शन की बात है। उन पर स्नेह आने से पूछने पर वे पूर्वभव का वर्णन सुनाने की बात है। 82
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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