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राजलक्ष्मा न छोड़ने वाले तथा पापचरित्रों की अधोगति श्री उपदेश माला गाथा ३२-३३ देने की) का प्रायश्चित्त करूँ" अतः आचार्य ने तुरंत वही छुरी लेकर अपने गले पर फेर ली। और समाधिपूर्वक थोड़ी ही देर में अपना शरीर छोड़ दिया। आचार्य और राजा दोनों मरकर देव बनें।
इसी तरह दूसरे भी अभव्य या दुर्भव्य आदि जीव को बहुत उपदेश से भी प्रतिबोध प्राप्त नहीं होता। वह दुष्टकर्म करने वाला साधुवेष छोड़कर अपने राजा के पास गया, और अपने साहस की सभी बातें उनसे कहीं। राजा ने उसकी सारी बातें ध्यान से सुनीं। राजा के मन में उसके प्रति घृणा हो गयी। उसे फटकारा-"अरे दुष्ट! तूने राजा को वीरता पूर्वक नहीं मारा; किन्तु छल से, धर्म का बाना पहनकर मारा है। इसीलिए तूं बड़ा क्रूरकर्मी और महापापी है। अतः तूं इनाम के योग्य नहीं, देशनिकाला देने योग्य है।" यह कहकर उसे तिरस्कारपूर्वक देशनिकाला दे दिया।॥३१॥
इस कथा का सारांश यह है कि ऐसे गुरु (भारी) कर्मी जीव को प्रतिबोध नहीं लगता।
गयकन्नचंचलाए, अपरिचताए, रायलच्छीए । जीया सकम्मकलिमलभरियभरा तो पडंति अहे ॥३२॥
शब्दार्थ - जो जीव, हाथी के कान की तरह चंचल राजलक्ष्मी को नहीं छोड़ते, वे अपने दुष्कर्म के कलिमल के भार से अधोगति में गिरते हैं।।३।।
भावार्थ - राज्यलक्ष्मी हाथी के कान की तरह चंचल है; ऐसा जानता हुआ भी, यदि जीव उसका त्याग नहीं करता तो वह अपने कर्मरूपी कीचड़ से भर जाता है। और उस भार से वह जीव अधोगति (नरक आदि) में जाता है। अतः राज्यलक्ष्मी से क्या लाभ? कुछ भी नहीं है ॥३२॥
योतूणयि जीवाणं, सुदुक्कराई ति पावचरियाई । भयवं जा सा सा सा, पच्चाएसो हु इणमो ते ॥३३॥
शब्दार्थ - कितने ही जीवों के पापचरित्रों को मुख से कहना भी अति दुष्कर होता है। इस बारे में दृष्टांत है-भगवान् से पूछा-यह वही है? भगवान् ने कहाहाँ, यह वही है ।।३३।।
___ भावार्थ - कई जीवों के पापकर्म ऐसे प्रबल होते हैं कि अपने मुख से दूसरे के सामने कहना भी अति लज्जास्पद होता है। एक पुरुष ने समवसरण में आकर भगवान् से पूछा-'(जा सा) वह स्त्री मेरी बहन है?' भगवान् ने कहा"(सा सा) अर्थात् वही स्त्री तेरी बहन है।" यहाँ नीचे 'जा सा, सा सा' का दृष्टांत दे रहे हैं74