________________
दोहा-पाहुड
देह गळी जाय छे त्यारे बधुं गळी जाय छे - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, धारणशक्ति अने ध्येय. त्यारे एवा अवसरमां हे मूर्ख ! विरला ज देव- स्मरण करे छे.
१०३ भोगोथी भागेलुं जेनुं सुंदर मन इच्छाओनी पेली पार स्थिर थयुं छे ते ज्यां फावे त्यां फरी शके छे. तेने भय नथी, भवभ्रमण नथी. १०४
जीवोनो वध करवाथी नरकगति अने अभयप्रदान करवाथी स्वर्ग - आ बे जोडिया रस्ता दर्शाव्या छे. ज्यां फावे त्यां चालो.
१०५ सुख बे दिवसनां छे, फरी दुःखोनी परंपरा. हे हृदय ! हुं तने शीखवू छु - (साचा) रस्ते चित्त लगाड.
१०६ हे मूढ ! देहमां आसक्त न थर्बु जोईए, देह आत्मा नथी. देहथी भिन्न एवा ज्ञानमय आत्माने तुं जो.
१०७ . जेवू चंडाळनुं झुपडं तेवी अपवित्र(?) काया छे. त्यां ज प्राणपति वसे छे. हे जोगी ! त्यां ध्यान कर.
१०८ थड छोडीने जे डाळे चडे ते योगाभ्यास केवी रीते करवानो हतो? हे मूढ ! कांत्या विनाना कपासमांथी कपडु केवी रीते वणी शकाय? १०९
जेना सर्व विकल्पो तूटी गया छे, जे चैतन्य-भावने पाम्यो छे, जे निर्मळ ध्यानमां स्थिर थयो छे, तेनो आत्मा परमात्मानी साथे रमण करे छे. ११०
आज तारे लक्ष आपीने (मनरूपी) करभने जीती लेवो जोईए के जेना पर चडीने परम मुनि सर्व गमनागमन(जन्म-मरण)थी मुक्त बने छे. १११ . भवभ्रमणनी विषम गतिनो ज्यां सुधी तें नाश नथी को त्यां सुधी हे मन-करभ ! जिनगुणरूपी वाडीमां तपरूपी वेलीओ इच्छा मुजब चर. ११२
तपरूपी दामण, व्रतरूपी तंग अने शमदमरूपी पलाण कर्यु. संयमरूपी घरमांथी उत्कंठित थईने करभ निर्वाण पाम्यो.
११३