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पद्मराजगणिसत्सहायता-योगतः सपदि सिद्धिमागता। - 'वृत्तिकल्पलतिका' सतामियं पूरयत्वभिमतार्थसन्ततिम् ॥ ७॥
अज्ञानतो भ्रमवशादविमर्शतो वा, यत्किञ्चिदत्र विवृतं मयका विरुद्धम्। तच्छोधयन्तु सुधियो धृतसाधुवादाः, कारुण्यपुण्यमनसो मयि सुप्रसादाः॥ ८॥
इसकी दो प्रतियाँ श्री कैलाशसागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा (गाँधीनगर) क्रमाङ्क ९५२५ और १३५५४ पर प्राप्त है।
३. सुबाहु सन्धिः - विपाकसूत्रगत सुखविपाक के अन्तर्गत सुबाहु अध्ययन के आधार पर विक्रम संवत् १६०४ जैसलमेर नगर में इसकी रचना की गई है। इसकी भाषा राजस्थानी है। इसकी रचना प्रशस्ति निम्न है:
इम जंबूनई सोहम सामिईं, एह अज्झयण भण्यउ सिव कामिईं, तिम सम्बन्ध एह गुणि भरिउ, इग्यारम अंगह ऊधरियउ। संवत् सोल चडोत्तर वरसई, जेसलमेरु नयर सुभ दिवसई, श्रीजिनहंससूरि गुरु सीसइ, पुण्यसागर उवझाय जगीसइ। श्रीजिनमाणिकसूरि आदेसइ, सुबाहु चरित भणियउ लवलेसइ, पास पसायइ ए रिषि थुणतां, रिद्धि सिद्धि थायउ नितु भणतां। विविध ज्ञान भण्डारों में इसकी अनेकों प्रतियाँ प्राप्त हैं।
४. साधु वन्दना - श्रीजिनचन्द्रसूरि के आदेश से (१६१४ के बाद) इसकी रचना की गई है। यह राजस्थानी रचना है। पूर्व गणधरों, गीतार्थों, महापुरुषों और आचार्यों के नामोल्लेख सहित उनकी वन्दना की गई है। इसकी रचना प्रशस्ति इस प्रकार है:आदि
पंच परमेठि पयकमल वंदी करी, भाव बलि भाल तलि एह अंजलिधरी साधु भगवंतनै नामग्रहण करी, जम्म सुपवित्त हुं करिस श्रुत अणुसरी॥१॥ अन्त
इम सुगुरुश्री जिनहंससूरिस, तासु सीसैं अभिनवो, उवझाय वरश्री पुण्यसागर कहै ए रिषि संथवो। उपदेश श्री जिनचंद्रसूरीसर तणे जे मुनि थुणै, तसु साधुवंदण सुहानंदन हवउ सिवसुखकारणै॥ ८८ ॥ इन कृतियों के अतिरिक्त महोपाध्याय पुण्यसागरजी रचित जिनस्तवनादि