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शब्दों में वे चरणपादुका साक्षात् श्री रामचन्द्रजी की प्रतीक बन गईं। इस दृष्टि से पत्थर की मूर्ति का शिल्पकार द्वारा निर्मित होना भी आवश्यक नहीं कहा जा सकता । वह धातु, काष्ठ, बालू या रेत की भी हो सकती है व उसका ऐसा कोई भी प्राकार स्वरूप हो सकता है जो उसके श्रद्धालु के मन-मन्दिर में स्थान प्राप्त कर सके । विद्वान् लेखक ने पृष्ठ ग्यारह पर सही लिखा है कि परमात्मा का स्वरूप तो निराकार है परन्तु हमें उसे पाने हेतु उसकी साकार प्राकृति - आकार का अवलम्बन लेना पड़ता है अन्यथा हम अधिक समय तक उसके सम्बन्ध में अपने ध्यान को केन्द्रित नहीं बनाये रख सकते हैं । इसीलिए मूर्ति अथवा किसी अन्य प्रकृति प्रकार आदि को मानने का सिद्धान्त प्रायः विश्वव्यापक है । धार्मिक कार्यों में ही नहीं अपितु अपने सामाजिक, व्यावसायिक एवं व्यावहारिक कार्यों में भी हम इनका सहारा किसी-न-किसी रूप से प्रतिदिन के जीवन में लेते रहते हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से मन्दिर और मूर्ति की आवश्यकता स्वयं प्रमाणित कर देते हैं । हमारे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय जीवन में भी राष्ट्रचिह्न व राष्ट्रध्वज आदि इसी मनोवृत्ति के प्रतीक हैं क्योंकि उनमें हम अपने राष्ट्र और मातृभूमि के दर्शन करते हैं । ऐसी
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