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जाता है और अपने मन के अनुकूल उपस्थित उस 'छविग्रंकन' को देखता है। इससे उसके मन में स्थित चित्रानुबन्धी राग को पोषण मिलता है और उसी राग को पुष्ट करने वह पुनःपुनः उन छवियों को देखना चाहता है। भगवान के देवस्वरूप को देखने के लिए भी सुसंस्कृत आत्मा मन्दिर जाने का व्रत लेता है और अपने मन में-भावना में पूर्व से ही विद्यमान सात्त्विक प्रवृत्ति के पोषण के साधन मूत्ति में पाकर और अधिक धर्मानुरागी होता है। यों देखा जाये तो चित्रदर्शन और मूत्तिदर्शन व्यक्ति के मन में संकुलित हो रहे भावों का स्पर्श कर उन्हें उद्वेलित, तरंगित करने में सहायक होते हैं। एक मदिरा पीने वाला मद्य बिकने के स्थान को देखकर अपनी 'पॉकेट' के पैसे मद्य पीने में लगाता है। वह 'नशा' करके प्रसन्न होता है। 'मदिरागृह' और 'पाकेट का पैसा' तो उसकी पूर्ति में सहायक हैं । इस प्रकार मनुष्य की भावना ही उद्देश्य की और दौड़ती है तथा अपनी उत्कट बुभुक्षा की शान्ति चाहती है। यह भावना 'मद्य' पीने की ओर प्रवृत्त होती है तो लोक मे गहित कही जाती है; क्योंकि मद्य पीने के परिणाम, उसमें व्यय किया गया धन तथा मूल में मद्य स्वयं दूषित है। यह प्रात्म-विनाश के लिए
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२५५