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परिशिष्ट-1
* मूर्तिपूजा विषयक प्रश्नोत्तरी *
विश्व में ऐसी कोई जाति, ऐसा कोई समाज, ऐसा कोई कबीला आदि नहीं रहा है कि कहीं किसी ने कोई मूर्ति नहीं बनाई हो । प्रनादिकालीन यह विश्व जब से चला आ रहा है तब से मूर्ति भी चल रही है । प्राणीमात्र की, मनुष्य की बाह्य या आन्तरिक वस्तु की आवश्यकता मूर्ति से ही पूर्ण होती है ।
मूर्ति ही चंचल-चपल मन को चित्त प्रसन्नता की ओर सम्मुख करने हेतु प्रबल समर्थ आलम्बन है । चैतन्यमय आत्मा का मन के साथ मूर्ति का सम्बन्ध अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । जब भक्त भगवान की भक्ति में तल्लीन हो जाता है, तब वह अनुपम आनन्द अपने जीवन में उपलब्ध करता है । अन्त में भक्त भी भगवान बनने के भगीरथ प्रयत्न में सफल हो जाता है ।
पूर्व में 'मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता'
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - २३८