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कुछ तीर्थ प्रसिद्ध हैं और जितने जिनबिम्ब [ जिनमूर्तिजिनप्रतिमा ] हैं उन सबको मैं वन्दन - नमस्कार करता हूँ ।
D ' जावंति चेइआई सूत्र' में कहा है कि
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जावंति चेाई, उड्ढे सव्वाइं ताइं वंदे, इह
अहे अतिरि लोए । संतो तत्थ संताई ॥ १ ॥
अर्थ - ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में और तिर्यकलोक में जहाँ कहीं वर्त्तमान जितने जिनबिम्ब हों, उन सबको मैं इस जगह रहता हुआ वन्दन करता हूँ ।
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'अरिहंतचेइयारणं चैत्यस्तव सूत्र' में कहा है किअरिहंतचेइयाणं, करेमि काउस्सग्गं ।। १ ।।
वंदणवत्तिए पूम्रणवत्तिश्राए सक्कारवत्तिश्राए सम्माणवत्तित्राए बोहिला भवत्तिश्राए निरुवसग्गवत्तिश्राए ॥ २ ॥ सद्धा महाए धिई धारणाए अणुप्पेहाए वड्ढमाणीए ठामि काउस्सग्गं ॥ ३ ॥
अर्थ - श्री अरिहन्तों के चैत्यों के अर्थात् बिम्बों के वन्दन के निमित्त, पूजन के निमित्त सत्कार के निमित्त, सम्मान के निमित्त, बोधिलाभ के निमित्त और मोक्ष के निमित्त काउस्सग्ग अर्थात् कायोत्सर्ग करता हूँ तथा वह काउस्सग्ग-कायोत्सर्ग बढ़ती हुई श्रद्धा से, धैर्य - स्थिरता से, धारणा से और विचारणा तत्त्वचिन्तन से करता हूँ ।
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - १७२
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