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करने वाले ऐसे भगवान जिन को स्मरण करती हुई आदरपूर्वक उनकी पूजा करने लगी । ॥ ३३ ।। ब्रह्माविष्णुस्तथा शनो, लोकपालादिदेवताः । जिनार्चनरता एते, मानुषेषु च का कथा ? ॥ ३४ ॥ . ___ अर्थ-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र और लोकपालादि सर्व देवता जिन भगवान की अर्चना-पूजा में लगे हुए हैं, तो फिर मनुष्यों के लिये तो क्या कहना है ? [अर्थात् मनुष्यों को तो अहर्निश अवश्य ही जिनपूजा करनी चाहिये ।। ३४ ॥
जानुद्वये शिरश्चैव, यस्य घृष्टं नमस्यतः । जिनस्य पुरतो देवि ! , स याति परमं पदम् ॥ ३५ ॥
अर्थ-हे देवि ! जिस देव-देवेन्द्र और नर-नरेन्द्र का सिर-मस्तक और दोनों घुटने जिन-सर्वज्ञदेव को नमस्कार करने में घिस गये हैं, वह उस सेवा-भक्ति के कारण परम पद यानी मोक्ष को प्राप्त होता है। [अतएव सर्वज्ञ ऐसे श्री जिनेश्वर भगवान को नमस्कार करना परम पद प्राप्त करने का मुख्य कारण है] ।। ३५ ।।
इति श्रीविश्वकर्माविरचिताऽपराजितवास्तुशास्त्रमध्ये 'शिव-पार्वती संवादः' । मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१५२