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भी चारों निक्षेपों से श्री अरिहंत परमात्मा का ध्यान करने की आज्ञा फरमाई है। जिनमें 'चतुर्विंशतिस्तव' से नाम और द्रव्य निक्षेप से तथा चैत्यस्तव द्वारा स्थापनानिक्षेप से श्री जिनेन्द्रदेव की आराधना दिखाई है ।
(१५) श्री भगवतीसूत्र के बीसवें शतक के नवमे उद्देश में लब्धिधर, जंघाचारण एवं विद्याचारण मुनियों द्वारा शाश्वत और अशाश्वत जिनमूत्तियों की वन्दना करने का स्पष्ट उल्लेख है ।
(१६) श्री समवायांगसूत्र में जब लब्धिधर चारणमुनि श्री नंदीश्वर द्वीप में जिनचैत्यवंदना के लिये जाते हैं तब सत्रह हजार योजन ऊर्ध्वगति करते हैं ।
(१७) श्री रायपसेणीसूत्र में श्री सूर्याभदेव द्वारा को हुई जिनपूजा का स्पष्ट वर्णन है। जो देव परम सम्यग्दृष्टिवन्त है, परित्तसंसारी है, सुलभबोधि है और परम आराधक आदि है; ऐसा श्रमण भगवान महावीर परमात्मा ने अपने मुख से फरमाया है ।
(१८) श्री ठाणांगसूत्र के चतुर्थ ठाणे में श्री नंदीश्वर द्वीप पर कितने ही देव-देवियों की प्रभुपूजाभक्ति करने का स्पष्ट वर्णन है।
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मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१२१