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________________ पांडकवन में जाते हैं और वहाँ के जिनमन्दिरों की वन्दना करते हैं। वहाँ से निकल कर दूसरे डगल से नन्दनवन में जाते हैं और वहाँ के भी जिनचैत्यों को वन्दन करते हैं। वहाँ से लौटकर एक डगल से यहाँ आते हैं और यहाँ के जिनमन्दिरों की वन्दना करते हैं। [पू. श्री भगवती सूत्र मूल पाठ २० वां शतक, ६ वां उद्देश] (३) "गणपत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेईयारिण वा अरणगारे वा भावियप्परणो निस्साए उड्ढं वा उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो।" (चमरेंद्राधिकार) अर्थ-अरिहन्त, अरिहन्त चैत्य और तप संयम में भावित आत्मा वाले अणगार (मुनि-साधु) इन तीनों का शरण लिए बिना असुरकुमारेन्द्र यावत् सौधर्म देवलोक तक ऊर्ध्वगमन नहीं कर सकता। अर्थात्-अरिहन्तदेव, अरिहन्तदेव की मूत्ति-प्रतिमा और अणगार-मुनिराज की निश्रा से वह ऊँचा जा सकता है। [श्री भगवती सूत्र मूल पाठ ३ शतक, २ उद्देश] (४) "दोवई रायवरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता हायाकय बलिकम्मा कयकोउय मंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पा वेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवराई मूत्ति-८. मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-११३
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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