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वंदित्ता तो पडिनियत्तमाणे वितिएण उप्पाएणं नंदीसरवरे दीवे समोसरणं करेइ, करित्ता तहि चेइयाई वंदन। वंदित्ता इहमागच्छइ, आगच्छइत्ता इहं चेइमाई वंदइ ।"
अर्थ-भगवन् ! जंघाचारण मुनि की तिरछी गति का विषय कितना कहा है ? गौतम ! जंघाचारण मुनि यहाँ से एक डगल से रुचकवर द्वीप में उतरते हैं। उतरकर वहाँ के जिनमन्दिरों को वन्दन करते हैं, बाद में वहाँ से निकल कर दूसरे डगल से नन्दीश्वर द्वीप में जाते हैं, वहाँ रहे हुए जिनमन्दिरों को वन्दन करते हैं। वहाँ से एक डगल से यहाँ आते हैं और यहाँ के जिनचैत्यों को वन्दन करते हैं।
"जकाचारणस्सरणं भंते ! उड्ढंकेवइए गइविसए पण्णत्ते। गोयमा ! से णं इनो एगेणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेइ, करित्ता तहिं चेइआई वंदइ। वंदइत्ता, इहमागच्छइं, आगच्छइत्ता इहं चेइआइं वंदइ ।"
अर्थ-भगवन् ! जंघाचारण मुनि की ऊर्ध्वगति का विषय कितना कहा है ?
गौतम ! जंघाचारण मुनि यहाँ से एक डगल से
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-११२