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"चित्तभित्तिं न रिणज्जाए नारि वा सुप्रलंकिग्रं। भक्खरमिव दळूरणं दिद्धि पडिसमाहरे ॥"
जिस वसति स्थान में दीवार पर नारी-स्त्री का चित्र हो, वहाँ पर साधु ठहरे नहीं । कारण कि, उस निमित्त से भी साधु के मन में 'अशुभ भाव-अशुद्ध भाव' उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिये ऐसे स्थान में साधु रात्रिनिवास न करे।
पूज्य आर्य श्रीशय्यंभवसूरीश्वरजी महाराज विरचित श्रीदशवैकालिक सूत्र की इसी गाथा का लोकभाषा में अनुवाद करने वाले महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज ने साढ़े तीन सौ गाथाओं के स्तवन में कहा है कि"दशवकालिक दूषण दाख्यु, नारी चित्र ने ठामे । तो किम जिन प्रतिमा देखीने, गुण नवी होय परिणामे ॥"
अर्थात्-दीवार-भीत पर चित्रित अलंकार आदि से सुशोभित नारी-स्त्री को साधु पुरुष अपनी दृष्टि से देखे नहीं, भले स्त्री का चित्र हो या साक्षात् नारी का स्वरूप हो, वहाँ पर साधु पुरुष अपनी दृष्टि को स्थिर न करे । कदाचित् प्रमादवश दृष्टि पड़ भी जाय तो भी तत्काल दृष्टि को अपनी ओर खींच लेनी चाहिये और अन्तर्मुख
मूति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-८७