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देव-देवियों से, इन्द्र-इन्द्राणियों से, नर-नारियों से, मनुष्यतिर्यंच इत्यादि प्राणियों से भक्ति-भाव-बहुमानपूर्वक दृश्यअदृश्य, प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से पूजित है। ... (५.१) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति , तेरी प्रतिमा धर्मरूप महा नरेन्द्र की नगरी के सदृश है ।
(५२) हे प्रभो ! तेरी मूर्ति, तेरी प्रतिमा अनेक प्रकार की आपत्ति-विपत्ति रूपी वेलड़ी-लता का विनाश करने के लिये धूमस के समान है ।
(५३) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरो प्रतिमा आनन्द उत्कर्ष के उत्तम प्रभाव का विस्तार करने में लहरों का काम करने वाली है।
(५४) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति , तेरी प्रतिमा कल्याण रूपी वृक्ष की मंजरो के तुल्य है।
(५५) हे प्रभो ! तेरी मूर्ति, तेरी प्रतिमा राग-द्वेष रूपी रिपुओं पर विजय प्राप्त कराने वाली है।
(५६) हे प्रभो! तेरी मत्ति, तेरी प्रतिमा अभयदानयुक्त और उपाधि रहित वृद्धिंगत गुणस्थानक के योग्य अहिंसा-दया का पोषण करती है ।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-८४