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दोषशून्यः कलाभ्यास-आलादेनापि अहं अपरिचितोऽस्मि तथापि हे प्रभो! त्वं ममहृदयभावनां कारुण्यात् पूरयतु ।
* हिन्दी अनुवाद-संसार के दावानल को शान्त करने में समर्थ पवित्र सत्य क्रिया का अनुगमन भी मैंने नहीं किया है। जन्म-मृत्यु-विनाशक सद्भाव का आश्रय भी मैंने नहीं किया है। निर्दोष कलाभ्यास की प्रसन्नता से भी यह व्यक्ति परिचित नहीं है, तथापि हे अरिहन्त देव ! अपने कारुण्य भाव से आप मेरे हृदय की भावना (मनः कामना) को पूर्ण करें ।। १४० ।।
[ १४१ ] - मूलश्लोकःकियद् ब्रमो मूर्त्या जिन ! सुमहिमानं हितवहं , नयाँनो दीनस्तव रतिविहीनो विगतधीः । न सन्मार्गे चाहं न कविषु धुरीणो बुधवरः , कृपासिन्धो ! नित्यं तदपि परितापं शमयतु ॥ १४१ ॥
संस्कृतभावार्थः-हे देवाधिदेव ! जिनेश्वरभगवन् ! अहं तव सुमूर्त्याः कियद् महिमानं कथयामि । नीतिज्ञानहीनः श्रीमच्चरणारविन्दश्रद्धाविहीनो बुद्धिविलासशून्यः अस्मि। अहं सन्मार्गारूढः, कविकर्ममर्मज्ञो विद्वान् अपि