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समस्त सांसारिक भय को दूर करने वाली आपकी सर्वश्रेष्ठ सेवा-पूजा भी मैंने कभी नहीं की है। भवभ्रमण विनाशक श्रीनमस्कारमहामन्त्र-स्तोत्रादिक स्मरण तथा श्रीशान्तिस्नात्रादिक महोत्सव भी श्रद्धापूर्वक किया नहीं है। श्रीसिद्धचक्रयन्त्र-तन्त्र-मन्त्र की भी सम्यग् आराधना की नहीं है . एवं शिवसुखकलत्र मोक्षसुखदायिनी मुक्तिदेवी की उपासना भी मैंने कभी नहीं की है। तथापि मेरी करुण पुकार सुनकर हे देवाधिदेव ! करुणासिन्धो ! श्रीअरिहन्त परमात्मन् ! देर से भी आपकी अनुपम सेवा में समुपस्थित इस अधम-पातकी के समस्त हार्दिक-सन्तापों का शमन कीजिए ॥ १३८ ।।
[ १३६ ] D मूलश्लोकःन वा दत्तं दानं दुरितदवतोऽयं हतधिया , सुशीलं यच्छोलं नरकगतिकीलं न च भृतम् । तपो वै नो तप्तं कुकृतपरितापं कथमहो !, तथार्हन् ! कारुण्यात् तदपि मम तापं शमयतु ॥ १३६ ॥
5 संस्कृतभावार्थः-जडबुद्धया पापाग्निशमनाय दानस्वरूपं जलमपि मया न वितरितम् । नरकगतिनाशक सुशीलं सुचरितमपि मया नानुष्ठितम् । कुकर्मविनाशकं
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