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स्याद्वादबोधिनी-५४ उक्त वैशेषिक कथन श्री जैनदर्शनानुसार युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि अदृष्ट के सर्वव्यापी होने में कोई प्रमाण नहीं है। यदि आप ऐसा कहें कि अग्नि की शिखा का ऊँचा जाना, पवन-हवा का तिरछा बहना, यह सब अदृष्ट से ही होता है। अतः अदृष्ट का साधक प्रमाण है । तो यह कथन भी समीचीन नहीं है, क्योंकि ये उनके तत्-तत् स्वभाव मात्र हैं तथा सत्त्व गुण प्रयास नहीं करता। यह सिद्ध है कि-प्रात्मा के बुद्धि आदि गुण शरीर में रहते हैं। अतः गुणी प्रात्मा भी देह परिमाणी है।
यदि आप कहें कि-भिन्न देहस्थ में भी मन्त्रों से आकर्षण, उच्चाटन इत्यादि प्रत्यक्ष देखे जाते हैं तो मन्त्रातिरिक्त गुणों की सत्ता व्यापक रूप से है। उसी प्रकार प्रात्म सत्ता शरीरातिरिक्त भी बहिर्माग में व्यापक हैऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि आकर्षण-उच्चाटनमारण इत्यादि मन्त्र के गुण नहीं हैं ।। ६ ॥
वैशेषिक-नैयायिकयोः प्रायः समानतन्त्रत्वादौलूक्य मते क्षिप्ते यौगमतमपि क्षिप्तमे वावसेयम् । पदार्थेषु च तयोरपि न तुलया प्रतिपत्तिरिति । साम्प्रतमक्षपादप्रतिपादितपदार्थानां सर्वेषां चतुर्थपुरुषार्थ प्रत्यसाधकतमत्वे वाच्येऽपि, तदन्तःपातिनां छल जाति निग्रहस्थातानां परोपन्यासनिरा