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________________ स्याद्वादबोधिनी-२०८ पश्चात् यथार्थवाद के रूप में ही विनिःसृत होते हैं। कष प्रादि के संदर्भ में कहा भी है प्राणवध इत्यादि पापस्थानों के परित्याग और ध्यान, अध्ययन आदि की विधि को 'कष' कहते हैं ॥ १ ॥ जिन बाह्य क्रियाओं में धर्म में बाधा न आती हो और जिससे निर्मलता की वृद्धि हो, उसे 'छेद' कहते हैं ॥ २ ॥ __ जीव से सम्बद्ध दुःख और बन्ध को सहन करना 'ताप' कहलाता है ।। ३ ।। अतः विसंवादी परतथिकों के वचन उक्त परीक्षात्रयशुद्धिपूर्वक न होने के कारण विसंवाद ग्रस्त हैं। जो स्वयं विसंवादग्रस्त है, वह सन्मार्ग प्रदर्शित नहीं कर सकता। भटका हुआ, क्या राह दिखायेगा ? हे जिनेश्वरदेव ! आप लोकत्रय की रक्षा करने में अद्वितीय समर्थ हैं, मोहात्मक अन्धकार से संसार को मुक्त करने में समर्थ हैं। आपकी स्याद्वादात्मक वाणी लोककल्याणी है। अतः आपकी पूजा करने वाले कृतार्थ हैं।
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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