SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याद्वादबोधिनी-१६० है। ऐसी स्थिति में मोक्षस्थिति को देखते हुए एक समय ऐसा भी सम्भव है, जब संसार में कोई जीव ही न रहे । इस प्रकार सांसारिक व्यवस्था का उच्छेद हो जायेगा। अतः सर्वज्ञ देवाधिदेव श्री जिनेश्वर अरिहन्त भगवान द्वारा प्ररूपित जीवानन्त्यवाद ही श्रेयस्कर है। अतः श्रीजिनअर्हद्भाषित जीवानन्त्यवाद की स्तुति करते हुए कलिकाल सर्वज्ञ प्राचार्यप्रवर श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजश्री कहते हैं * श्लोकार्थ-जो दार्शनिक जीवों को परिमित (संख्यात) स्वीकार करते हैं, उनके मतानुसार या तो मुक्त जीव पुनः संसार में जन्म ग्रहण करें अथवा एक दिन संसार जीवों से रहित हो जायेगा, जिससे संसारोच्छेद दोष की उद्भावना होगी। हे वीतरागदेव अरिहन्त परमात्मा आपने जो षड्जीवनिकाय को अनन्त कहा है, उस स्थिति में कहीं भी दोष नहीं है। अर्थात् परवादियों को भी प्राप के जीवानन्त्यवाद की शरण लेनी चाहिए । 9 भावार्थ-संसार के समस्त बन्धनों से, कर्मबन्धन से रहित होना 'मोक्ष' कहलाता है। संसार में प्राणी का जन्म ही कर्मबन्धनों के कारण होता है, कर्म बन्धन टूट जाने पर 'मोक्ष' हो जाता है। मुक्त प्रात्मा कर्म रहित
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy