________________
66 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
शुक्रनीति में ही इस ‘लोक (अथवा सामाजिक) व्यवस्था' पर जोर देते हुए कहा गया है
"नीति के बिना लोक व्यवहार असम्भव है।'
यह निश्चित है कि लोक अथवा समाज की व्यवस्था, व्यवहार पर ही आश्रित है। व्यवहार यदि एक शब्द में कहा जाय तो व्यवस्था की रीढ़ (back bone) है। यदि समाज के सदस्यों का-मानवों का पारस्परिक व्यवहार उचित होगा तभी व्यवस्था भी रह सकेगी। इसीलिए इस परिभाषा में व्यवहार पर अधिक बल दिया गया है।
यहां आकर शुक्रनीति स्पष्टतः समाजपरक हो गई है, इसमें से आध्यात्मिकता का अंश निकल गया है।
हितोपदेशकार तो नीति को ही जगत का आधार मानते हैं। उन्होंने यहां तक कह दिया है
“नीति के भंग होने पर समस्त जगत् नष्ट हो जाता है।"
व्यवहार का अनौचित्य और दूसरे शब्दों में अनीति तथा दुर्नीति जब समाज पर-जगत पर हावी हो जाती है तो उसकी व्यवस्था भंग हो जाती है, अपराध बढ़ जाते हैं, धर्म के शब्दों में पाप बढ़ जाते हैं, और फिर परिणाम जगत का नाश ही होता है।
यह परिभाषा भी सामाजिकतापरक है। समाज की सुव्यवस्था ही इसका ध्येय है।
इसी प्रकार की परिभाषाएं अन्य अनेक भारतीय मनीषी विद्वानों ने दी है। इनमें आध्यात्मिकता का पुट होते हुए भी सामाजिकता और समाजपरकता प्रमुख रही है। समाज में सुव्यवस्था सभी का अभिप्रेत रहा है।
_ भारतीय चिन्तन के दृष्टिकोण से आत्मविरोधी, समाजविरोधी, परिवारराज्य-राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना तथा सभी प्रकार कीआध्यात्मिक, मानसिक, चारित्रिक, सामाजिक आदि-उन्नति में सहयोगपूर्ण वातावरण बनाना ही नीति तथा नैतिकता है और इस उन्नति में उपयुक्त सिद्धान्तों का प्ररूपण ही नीतिशास्त्र है।
क्योंकि भारत में नीति और धर्म का अविभाज्य सम्बन्ध रहा है, अतः यहाँ नीति का मुख्य कार्य व्यक्ति का-समाज का चारित्रिक सुधार है। 1. सवलोकव्यवहार स्थितिर्नीत्या बिना नहि। -शुक्रनीति, 1/11 2. विपनायाां नीतो सकलमवशं सादति जगत्। -हितोपदेश, 2/75