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प्रस्तावना
मानव-जीवन का प्रसाद विविधता की बहुविध पृष्ठभूमियों पर आधृत है। उन विविधताओं का एक ऐसा समन्वति रूप उसमें सम्प्रतिष्ठ है, जो उसे सामंजस्य के धागे में पिरोए रखता है। यह वांछित है कि इस तथ्य को यथावत् रूप में आत्मसात् किया जाए। जहाँ ऐसा होता है, जीवन संतुलन की धुरी पर सम्यक् रूप में गतिशील रहता है।
मानव-जीवन का यह सामंजस्य अपने आप में अनेक मर्यादाएँ लिए हुए है। ये मर्यादाएँ समाज, धर्म-परिवार, राष्ट्र एवं लोक से संबद्ध उन विशिष्ट मान्यताओं से जुड़ी होती हैं, जो इन सब के अस्तित्व की संवाहिकाएँ हैं। यों एक ऐसे नियम-क्रम या विधिक्रम का स्वरूप निर्मित होता है, जो जीवन की गाड़ी को सही दिशा में सही रूप में लिए चलता है। उसे नीति की संज्ञा दी गई है।
नीति शब्द संस्कृत की नी धातु से निष्पन्न है। "नी" धातु ले जाने के अर्थ में है। नीति का शाब्दिक विश्लेषण “नीयते अनया इति नीतिः” है। जो सही दिशा में लिए चले, अग्रसर करे, वह नीति शब्द से अभिहित है।
नीति शब्द अपने आप में कुछ भ्रामक भी है। यह एकाकी उपयोग में भी आता है और कतिपय अन्य संज्ञाओं के आगे जुड़कर भी, जैसेः-धर्मनीति, राजनीति, दण्डनीत, युद्धनीत, कूटनीति, समाजनीति इत्यादि। यहाँ कुछ शंकाएँ उत्पन्न हो सकती हैं, क्या समाजनीति, धर्मनीति और राजनीति आदि के मूल आधार आदर्शों की दृष्टि से भिन्न हो सकते हैं? एक दूसरे के प्रतिकूल हो सकते हैं? यदि ऐसा है तो क्या वे सब नीति कहे जाने की अधिकारिणी हैं?
कौटिल्य के अर्थशास्त्र का एक छोटा सा उदाहरण है। उन्होंने वहाँ शत्रु राजा के विनाश के लिए विषकन्या के प्रयोग की चर्चा की है। शैशवावस्था