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से ही एक कन्या को विषाक्त बनाने हेतु विविध प्रकार से उसकी देह पर विषों के अनेक प्रयोग किए जाते थे । साँप आदि जहरीले जन्तुओं से कटवाना, विषैले पदार्थों का सेवन करवाना प्रभृति ।
निरन्तर ऐसे प्रयोग किए जाते रहने से वह कन्या तरुणावस्था तक पहुँचते-पहुँचते इतनी विषाक्त हो जाती थी कि उसके संस्पर्श मात्र से तत्काल व्यक्ति की मृत्यु हो जाती थी । ऐसे ही विषकन्या प्रयोग की एक घटना का संकेत विशाखदत्त रचित "मुद्राराक्षस" नामक नाटक में है। यह वह नाटक है जिसमें महापद्मनन्द के महामन्त्री राक्षस ( सुशर्मा ) तथा चन्द्रगुप्त मौर्य को उत्तर भारत के एकछत्र साम्राज्य का सर्वतन्त्र - अधिपति बनाने को प्राणपण से समुद्यत राजनीति के महान् पण्डित महामन्त्री चाणक्य के अत्यधिक बुद्धिमत्तापूर्ण राजनैतिक, कूटनैतिक संघर्ष की कहानी है, जहाँ पर्वतेश्वर (उत्तर-पश्चिम सीमान्त - प्रदेश के शासक ) मलयकेतु, जो चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रतिद्वन्द्वी था, जो विशाल सैन्य के साथ पाटलिपुत्र पर चढ़ आया था, की विषकन्या के प्रयोग द्वारा मृत्यु होती है । यहाँ सहज ही प्रश्न उठता है, महान् नीतिनिष्णात कौटिल्य ऐसे हिंसालक्षी उपक्रम को जो नीति में स्वीकार करते हैं, क्या उसमें औचित्य है ?
इसी प्रकार का एक प्रसंग रामायण में प्राप्त होता है । रावण का पुत्र मेघनाद अजेय रथ प्राप्त करने हेतु अपनी कुलाधिष्ठात्री निकुंभिला देवी के मन्दिर में अनुष्ठान हेतु जाता है। अनुष्ठान में अभिरत होता है । उधर राम के दल में विभीषण द्वारा सुझाए जाने पर लक्ष्मण अनेक योद्धओं के साथ मेघनाद के अनुष्ठान में विघ्न डालने हेतु आते हैं । अनुष्ठान को विध्वस्त करना चाहते हैं । लक्ष्मण के साथी योद्धा मेघनाद को तरह-तरह से प्रताड़ित करते हैं, सताते हैं, फिर भी मेघनाद काफी समय तक अविचलित रहता है विघ्नकारी उसे मारने पीटने के साथ-साथ उसकी यज्ञाग्नि में पानी तक डाल देते हैं। अनुष्ठान भग्न हो जाता है । मेघनाद को उसे अपूर्णावस्था में छोड़ देना पड़ता है। यहां भी वही प्रश्न है? मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदेश से ऐसा जो किया गया, क्या वह नीति के अन्तर्गत है?
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एक सुप्रसिद्ध नीति वचन है:
सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ॥