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48 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से निर्जरा है-ऐसे वाग्-जालों में किसी को न फँसाना, झूठ-कपट और लच्छेदार शब्दों में किसी को न बाँधना, और यदि पहले कषाय आदि के आवेग में किसी को इस प्रकार बंधन में ले लिया हो तो उसे वचनमुक्त कर देना, साथ ही स्वयं भी उस बंधन से मुक्त हो जाना। इसी बात को हेमचन्द्राचार्य ने इन शब्दों में कहा है
आस्रवो भवहेतु स्याद् संवरो मोक्ष कारणम्। इतीयमार्हती दृष्टिरन्यदस्या प्रपंचनम् ॥
-वीतराग स्रोत -(आस्रव भव का हेतु है और संवर मोक्ष का कारण है। दूसरे शब्दों में आस्रव अनैतिक है तथा संवर नैतिक है। यह आर्हत (अरिहंत भगवान तथा उनके अनुयायियों की) दृष्टि है और सब इसी का विस्तार है।)
जैन दृष्टि के इन मूल आधारभूत तत्वों के प्रकाश में अब हम तीर्थंकर महावीर की नीति को समझने का प्रयास करेंगे। श्रमण और श्रावक
तीर्थंकर के अनुयायियों का वर्गीकरण श्रमण और श्रावक इन दो प्रमुख वर्गों में किया जा सकता है। इन दोनों ही वर्गों के लिए आचरण के स्पष्ट नियम निर्धारित कर दिये गये हैं। पहले हम श्रमणों को ही लें।
श्रमणाचार में नीति
श्रमण के लिए स्पष्ट नियम है कि वह अपना पूर्व परिचय-गृहस्थ जीवन का परिचय श्रावक को न दे। सामान्यतया श्रमण अपने पूर्व-जीवन का परिचय श्रावकों को देते भी नहीं; किन्तु कभी-कभी परिस्थिति ऐसी उत्पन्न हो जाती है कि परिचय देना अनिवार्य हो जाता है, अन्यथा श्रमणों के प्रति आशंका हो सकती है।
इसे एक दृष्टान्त से समझिये
भगवान नेमिनाथ के शिष्य छह मुनि थे-अनीकसेन आदि। यह छह सहोदर भ्राता थे, रूप-रंग, वय आदि में इतनी समानता थी कि इनमें भेद करन बड़ा कठिन था। दो-दो के समूह में वह छहों अनगार देवकी के महल में भिध के लिए गये।