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नीतिशास्त्र का उद्गम एवं विकास / 43
(v) आधुनिक नैतिक चिन्तन - इसका प्रारम्भ बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों से माना जाता है। बीसवीं शताब्दी विज्ञान की चमत्कारी खोजों का युग रही है। पश्चिम ने भौतिक जगत के नये-नये आयाम खोजे हैं। इन खोजों में भारतीय वैज्ञानिकों सर जगदीशचन्द्र बोस, सर वेंकटरमन, सर मेघनाथ साहा और कवि दार्शनिक गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी अपनी प्रतिभा के चमत्कार दिखाये 1
विज्ञान की अधुनातन खोजों ने सुख-सुविधा के इतने प्रचुर साधन उपलब्ध करके प्रसारित किये कि मानव सुख-सुविधावादी भोग-परायण और प्रदर्शनप्रिय बन गया ।
अतः भारतीय त्यागप्रधान और मोक्षवादी नैतिक चिन्तनधारा को बहुत तीव्र आघात लगा । चिकित्सा और श्रृंगार-प्रसाधनों के लिए लोग हिंसा को विहित मानने लगे, धनोपार्जन के लिए अथवा उच्चपद प्राप्ति के लिए छल-कपट को आवश्यक और उचित ठहराया जाने लगा। संचय और परिग्रह तथा प्रदर्शन उच्च जीवन स्तर का आवश्यक तथा अनिवार्य घटक बन गया ।
इस शताब्दी में महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, महामना मदन मोहन मालवीय, श्री विनोबा भावे, किशोरदास मश्रुवाला, डा. राधाकृष्णन आदि भारतीय चिन्तकों ने पुनः भारतीय नैतिकता का उज्ज्वल पक्ष संसार के समक्ष रखा और विज्ञान से आवश्यक समन्वय करके भारतीय नीति को नया रूप दिया ।
किन्तु इस नये रूप में भी भारतीय नीति के दया, क्षमा, मोक्ष, त्याग, दान, उदारता, अहिंसा, सहिष्णुता आदि आवश्यक अनिवार्य और सनातन घटक अक्षुण्ण रखे।
इन चिन्तकों ने विज्ञान से इतना ही समझौता किया कि जहां तक वैज्ञानिक खोजें, मानवीय स्वास्थ्य तथा स्वस्थ चिन्तन में सहायक हैं, वहां तक तो उन्हें अपनाना और जहां विज्ञान दानव बनता हुआ दिखाई दिया, मानवता के विकास मे अवरोध पैदा करने वाला मालूम हुआ, वहां उन्होंने विज्ञान का मानव-जीवन में प्रवेश करना उचित न समझा ।
इसीलिए गांधीजी बड़ी मशीनों के पक्षधर नहीं रहे क्योंकि इनके प्रयोग से मानव की कार्यक्षमता घटती है, मानव मशीनों का गुलाम बन जाता है और दासता स्वयं एक बहुत बड़ी अनैतिकता है ।
इस प्रकार नीति - भारतीय नीति, भारतेतर और पश्चिमी नीति की संक्षिप्त विकासधारा का यह दिग्दर्शन है, जो प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान युग तक चली आई है।