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476 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
धन
रोय - रोय के पाइये रुपिया जिसका नाम । जब जाये फिर रोइये इहमुख जिसको नाम ।।
धर्म
टका करै कुल हूल, टका मिरदंग टका चढ़े सुखपाल, टका सिर छत्र टका माय अरु बाप, टका भैयन को टका सास अरु ससुर, टका सिर लाड़ लड़ैया । । अब एक टके बिनु टकटका रहत लगाये रात दिन । वैताल कहै विक्रम सुनो, धिक जीवन इक टके बिन । । - कविता कौमुदी भाग 1; पृ. 399 धरिये जोर । करोरि । ।
- बिहारी सतसई, 646
मीत न नीत गलीत है ना धन खाए खरचे जो बचे, तो जोरिए
- गिरिधर कुण्ड., 207
बजावै ।
धनी और निर्धन
धरावै ।।
भैया ।
खरचत खात न जात धन, औसर किये अनेक । जात पुण्य पूरन भए, अरु उपजे अविवेक ।।
- वृन्द सतसई, 615
भले बंस को पुरुष सो निहुरै बहुधन पाय । नवै धनुष सदवंश को जिहिं द्वै कोटि दिखाय ।।
- वृन्द सतसई, 621
निज सदनहु नहिं मान हीं, निरधन जन को कोय । धनी जाय पर घर तऊ, सुर सम पूजा होय । ।
- दृष्टान्त तरंगिणी, 39
जाके अनुदिन अनुसरत जल मन विकसत जात । वर विचार उर विमलता विलसि विलसि अधिकाय ।।