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नीतिशास्त्र का उद्गम एवं विकास / 21
कम हैं, जिनका नीति से सीधा सम्बन्ध जोड़ा जा सके। फिर भी कुछ मन्त्र उद्धृत किये जा सकते हैं, यथासत्यकर्म की प्रेरणा
'वह देव तुमको श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कार्यों को करने की प्रेरणा करें। सत्य की प्रेरणा
मैं झूठ से सत्य की ओर जाता हूं। अन्य लोगों की सेवा के लिए ऋग्वेद में कहा गया है
'अज्ञानी व्यर्थ अन्न को इकट्ठा करता है, मैं सत्य कहता हूं वह उसका नाश करने वाला है। जो अन्न न अतिथि को पुष्ट करता है और न मित्रों को, उसे अकेले खाने वाला पाप करता है।' ।
इस सूक्त में संग्रहवृत्ति का निषेध झलकता है। सामूहिकता सम्बन्धी एक मन्त्र अथर्ववेद में प्राप्त होता है
'तुम सबका पानी पीने का स्थान एक हो, भोजन एक साथ करो।' इस सूक्त में सामूहिकता और मेल-मिलाप की भावना व्यक्त हुई है। वस्तुतः वेदों में नीति सम्बन्धी बह प्रचलित तीन सूक्त हैं
तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतंगमय असतो मा सद्गमय
इन सूक्तों से समाज की उन्नति और नीतिपूर्ण व्यवहार की ध्वनि निकलती प्रतीत होती है। ये सूक्त वैयक्तिक जीवन के लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितने सामाजिक और सामूहिक जीवन के लिए। वेदों की नीति में स्त्री जाति का गौरव भी कहीं-कहीं झलकता दिखाई देता है, और समाज को पुरुषार्थ करने की प्रेरणा भी। 1....a moralising note...is otherwise quite foreign to Rigveda, The Rigveda is every thing but a text book of morals.
-A History of Indian Literature, Vol. I, 1927, p. 115 2. यजुर्वेद, 1/1 3. यजुर्वेद, 1/5 4. ऋग्वेद, 10/117/6 5. अथर्ववेद, 1/30/6