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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 457
सन्तोष
असंतुट्ठाणं इह परत्थ य भयंति।
-आचारांगचूर्णि, 1/1/2
असन्तोषी व्यक्ति को यहां-वहां सर्वत्र भय रहता है।
सन्तोषी
संतोसिणो ण पकरेंति पावं।
-सूतकृतांग 1/12/15
सन्तोषी व्यक्ति पाप नहीं करते।
सत्सँग
कलुसी कदंपि उदयं अच्छं जह होइ कदय जोएण। कलुसो वि तहा मोहो उवसमदि हु बुड्ढ सेवाए।।
-भगवती आराधना, 1073 जैसे मलिन जल भी कतक फल के संयोग से स्वच्छ होता है वैसे ही कलुष मोह शील भी वृद्धों की संगति से उपशान्त हो जाता है। सद्गुण कंखे गुणे जाव सरीर-भेओ।
-उत्तराध्ययन, 4/13 जब तक शरीर न छूट जाय अर्थात् जीवन के अन्तिम क्षणों तक सद्गुणों की आकांक्षा करनी चाहिए। सद्व्यवहार खुड्डेहि सह संसग्गि हासं कीडं च वज्जए।
-उत्तराध्ययन, 1/9 क्षुद्र व्यक्तियों के साथ सम्पर्क, हंसी, मजाक, क्रीडा आदि नहीं करना चाहिए।