SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 483
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 455 काणे को काणा, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है, तथापि ऐसा कहना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसे वचनों से उनका दिल दुखता है। विनय विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छन्तो हियमप्पणो। -उत्तराध्ययन, 1/6 यदि आत्मा का (अपना) हित चाहते हो तो स्वयं को विनय (सदाचार) में स्थापित करो। हिय-मिय-अफरुसवाई, अणुवीइ भासि वाइओ विणओ। -दशवैकालिकनियुक्ति, 322 हित, मित, नम्र (अकर्कश) और विचारपूर्वक बोलना-यह वचन विनय है। विणएण विप्पहूणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा। विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं । -जीवन ववहारो, 19/55 विनयहीन व्यक्ति की समस्त शिक्षा निरर्थक हो जाती है। विनय शिक्षा का फल है और विनय का परिणाम सबका कल्याण है। शिक्षाशील यह अटेहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चइ। अहिस्सरे सया दंते, न य मम्ममुदाहरे।। नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए, स सिक्खासीले त्ति वुच्चई।। -उत्तराध्ययन, (11/4,5) इन आठ स्थितियों या कारणों से मनुष्य शिक्षाशील कहा जाता है: 1. हंसी-मजाक नहीं करना 2. सदा इन्द्रिय और मन का दमन करना, 3. किसी का रहस्योद्घाटन न करना, 4. अशील (सर्वथा आचारहीन न होना), 5. निशील (दोषों से कलंकित) न होना, 6. अति रसलोलुप न होना, 7. अक्रोधी रहना तथा 8. सत्यरत होना।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy