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________________ 454 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन मित्रता मित्तेण तुल्लं च गणिज्ज खुद जेणं भविज्जा तुह जीव! भद्द।। -उपदेश सप्ततिका, 3 छोटे जीव (क्षुद्र प्राणियों को भी) को भी अपने मित्र समान समझो। इससे हे जीव! तेरा कल्याण होगा। मेत्तिं भूएसु कप्पए -उत्तराध्ययन, 6/2 सब जीवों के प्रति मित्रता का व्यवहार करना चाहिए। लोभ जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। दो मास कयं कज्जं कोडीए वि निट्ठियं । -उत्तराध्ययन, 8/17 जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है और लाभ से लोभ बढ़ता जाता है। दो माशा सोने से पूरा होने वाला काम करोड़ों से भी पूरा नहीं हो सका-(यह लोभ की विचित्रता है।) लोभी लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं -प्रश्नव्याकरण सूत्र, 2/2 लोभी मानव लोभवश झूठ बोलता है। वाणी-विवेक मियं अदुटुं अणुवीए भासए, सयाणमज्झे लहइ पसंसणं। -दशवैकालिक, 7/55 परिमित, निर्दोष और विचारपूर्ण वचन बोलने वाला सत्पुरुषों में प्रशंसा प्राप्त करता है। तहेव काणं काणे त्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा। वाहियं वा वि रोगित्ति, तेणं चोरे त्ति नो वये। -दशवैकालिक, 7/12
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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