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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 441
थेवं व थेवं धम्मं करेह जइ ता बहुं न सक्केह। पेच्छह महानईयो बिन्दुहि समुद्दभूयाओ।।
-अर्हत्प्रवचन, 19/14 यदि अधिक न कर सको तो थोड़ा-थोड़ा ही धर्म करो। बूंद-बूंद से समुद्र बन जाने वाली महानदियों को देखो। उन्मार्गी
उम्मग्गठियो इक्कोऽवि, नासए भब्वसत्त संघाए। तं मग्गमणुसरंते, जह कुतारो नरो होइ।
___-गच्छाचार प्रकीर्णक, 30 जिसको भली प्रकार तैरना नहीं आता, वह जैसे स्वयं डूबता है और अपने साथियों को भी ले डूबता है, उसी प्रकार उल्टे मार्ग पर चलने वाला एक मनुष्य भी अपने साथ अन्य कइयों को भी संकट में डाल देता है।
करुणा
करुणाए जीवसहावस्य
-धवला, 13/5
करुणा जीव का स्वभाव है। कर्म कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि।
-उत्तराध्ययन 4/3 किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। कत्तारमेव अणुजाइ कम्म।
-उत्तराध्ययन, 13/23 कर्म हमेंशा कर्ता का पीछा करता है।
जमिणं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो। सयमेव कडेहिं गाहई, नो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं ।।
-सूत्रकृतांग, 1/2/1/4 इस विश्व में जितने भी प्राणी हैं, सब अपने कृतकर्मों के कारण ही दुःखी हैं। उन्होंने जो कर्म किये हैं, जिन संस्कारों की छाप अपने (आत्मा)