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नीतिशास्त्र का उद्गम एवं विकास / 17
आवश्यकताएँ वृक्षों से पूर्ण हो जाती थीं। इस युग को वैदिक और बौद्धदर्शन तथा जैनदर्शन ने भी भोग युग कहा है।
भोग युग का अभिप्राय है; जिस युग में जीविका निर्वाह के लिए किसी प्रकार के कला-कौशल के रूप में श्रम या कर्म की आवश्यकता ही न पड़े।
जैन विचारधारा ने इस भोगयुग को तीन कालों (आरों) में विभाजित किया है। प्रथम और द्वितीय आरे में तो कल्पवृक्षों की प्रचुरता रही, किन्तु ततीय आरा जब समाप्ति की ओर अपने चरण बढ़ा रहा था, तब कल्पवृक्षों की न्यूनता होने लग गयी।
इस न्यूनता का परिणाम यह हुआ कि उस युग के मानव कल्पवृक्षों पर अपना अधिकार जमाने लगे। आवश्यक वस्तुओं की कमी के कारण इनमें संग्रह प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव भी हो गया। इसके फलस्वरूप लोभ-क्रोध की वृद्धि और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने लगी।
इस स्थिति का मूल कारण था-उपलब्ध साधनों से मानवों की आवश्यकताओं का पूरा न होना।
इस संघर्ष की स्थिति को टालने के लिए जो नियम कुलकरों (कुल-कबीले के नियामकों द्वारा) निर्धारित किये गये, वे जैन दृष्टि से नीति के प्रथम सिद्धान्त थे। प्रारम्भ में वे नियम तीन प्रकार के थे जिन्हें हम तीन नीति कह सकते हैं।
(1) हाकार नीति-जब कोई व्यक्ति निर्धारित नियमों का उल्लंघन करता तो उससे कहा जाता-'हा! तुमने यह क्या किया? यह 'शब्द-प्रताड़ना' इस युग का महान दण्ड था। व्यक्ति सुनकर लज्जित हो जाता। यह दण्ड प्रथम कुलकर विमलवाहन ने निर्धारित किया।
(2) माकार नीति-जब हाकार नीति विफल होने लगी तथा अपराध बढ़ने लगे तब तीसरे कुलकर यशस्वी ने 'माकार' दण्डनीति का प्रचलन किया। 'माकार' का अभिप्राय था-ऐसा कार्य मत करो।' यशस्वी ने हाकार' और 'माकार' दोनों दण्डनीतियों से काम लिया। यह व्यवस्था उसके पुत्र अभिचन्द्र के समय तक सुचारु रूप से चलती रही। 1. 'ह' इत्यधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हाकारः। -स्थानांगसूत्रवृत्ति, 399 2. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति कालाधिकार, 76 3. 'मा' इत्यस्य निषेधार्थस्य करणं अभिधानं माकारः। -स्थानांगसूत्रवृत्ति, 399 4. त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, 1/2/176-179