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________________ 410 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन इससे त्राण पाने के लिए उसने राजा बनाया', राज संस्था का निर्माण किया और अपने सारे अधिकार राजा को सौंप दिये। लेकिन कुछ समय बाद ही राजा ने कर-भार से मानव को त्रस्त कर दिया। उसके श्रम का छठा भाग कर के रूप में वसूल करने लगा। __मानव ने एकतंत्र को कुलीन-तंत्र में परिवर्तित करके सोचा कुछ शान्ति मिलेगी; किन्तु कुलीन तंत्र ने सदाचारी विद्वानों को जहर का प्याला ही पिला दिया। मानव और भी दुखी हो उठा। उसने प्रजातंत्र की स्थापना की; किन्तु यह तो गुण्डों का खेल ही प्रमाणित होने लगा। मानव के दुःख की सीमा न रही। जन-नेता ही परस्पर वाक्युद्ध और गाली-गलौज करने लगे। परछिद्रान्वेषण और परदोषारोपण सामान्य हो गया। चरित्र-पतित हो गया। आर्थिक दृष्टि से भी मानव का पतन हो गया। अर्थ संबंधी समस्या के समाधान के लिए मानव ने पूंजीवाद के विरुद्ध समाजवाद और साम्यवाद की स्थापना की। लेकिन साम्यवाद ने मानव अर्जित अधिक सम्पत्ति का स्वामी राज्य को ही बना दिया। surplus का स्वामी राज्य बन गया और मानव की स्वतंत्रता-सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, सभी प्रकार की स्वतंत्रता छिन गयी। वह व्यवस्था का एक पुर्जा मात्र बनकर रह गया। समस्या का चक्र घूमता हुआ हज़ारों वर्ष पहले के युग में पहुँच गया जिस राज्य के चुंगल से मानव छूटना चाहता था, घूम-फिर कर उसी फन्दे में जकड़ गया। __ यही सब देखकर वाल्टेयर ने कहा-मानव-शिशु स्वतंत्र जन्म लेता है किन्तु जीवन भर विभिन्न प्रकार के बंधनों में जकड़ा रहता है और उन्हीं बंधनों में उसका अन्त हो जाता है। __ इन सब समस्याओं के समाधान के लिए मानव ने धर्म-संस्था की स्थापना की और उसकी शरण में शान्ति की, न्याय की, बलवती आशा की डोर बाँधी। लेकिन वहाँ भी एक शाश्वत धर्म के अनेक सम्प्रदाय बन गये। मुण्डे -मुण्डे मतिभिन्ना के अनुसार धर्म-संस्थापकों की जैसे बाढ़ आ गई। इनके भक्तों को 1. वैदिक-पुराण-महाभारत के अनुसार जनता ने मनु को राजा चुना था और अपने सारे अधिकार उन्हें सौंप दिये थे। 2. यूनान के प्रबुद्ध चिन्तक प्लेटो को कुलीन तंत्र ने विष का प्याला पिलाया था। 3. Democracy is the game of scoundrals. -Bertrand Russell
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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