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नीति की सापेक्षता और निरपेक्षता / 403
'सच बोलना चाहिए', 'जीवों पर दया करनी चाहिए', 'गर्व करना निन्द्य है',-शाश्वत नीति हैं। ये बातें जाने कब से मान्य हैं और संभवतः सर्वदा रहेंगी। दूसरी ओर 'युद्ध में प्राण देना ही जीवन की सार्थकता है, या 'नारी नरक का द्वार है' जैसी नीतियाँ अशाश्वत या सामयिक हैं मध्य युग में जब युद्धाधिक्य था, तथा भक्त या उनसे प्रभावित कवि अपनी दुर्बलता को नारी पर थोपकर पुरुष की उच्चता का निराधार डंका पीट रहे थे, इन दोनों का विकास हुआ और आज समय इतना परिवर्तित हो गया है कि इनकी मान्यता बिल्कुल
समाप्त है।
इसी प्रकार के अन्य उदाहरण दिए जा सकते हैं। श्री जे.एन. सिन्हा ने ऐसे अनेक उदाहरण दिये हैं-पूर्वी समुदायों में बहुविवाह पद्धति प्रचलित थी। इसमें एक पुरुष कई स्त्रियों से विवाह कर सकता था। इसे बहुपत्नी प्रथा (Polygamy) कहा गया। दक्षिणी अफ्रीका आदि देशों में बहुपति प्रथा (polyandry) थी। इन दोनों प्रथाओं के उदाहरण भारत में भी मिल जाते हैं। द्रौपदी ने पाँच पति किए थे और यही परम्परा अल्मोड़ा के पास जौनसार बावर में अब भी प्रचलित है। बहुपत्नी प्रथा से तो तमाम पुराण भरे पड़े हैं
और अब भी कहीं-कहीं मिल जाती है। मुसलमानों में तो यह अब भी प्रचलित है, किन्तु हिन्दुओं के लिए एक पत्नी का कानून स्वतंत्र भारत की सरकार ने बना दिया है। जबकि पश्चिमी देशों में सामान्यतः एक पत्नी-प्रथा की परम्परा रही है।
इसी प्रकार विवाह संबंधी और भी विधि-निषेध विभिन्न समुदायों में रहे
हैं।
भोजन संबंधी विविधता भी है। पश्चिमी देशों में रात्रि के भोजन के समय शराब का सेवन अनिवार्य अंग है; जबकि भारत में ऐसी परम्परा नहीं रही
है।
आचार-विचार संबंधी ऐसे ही अनेक भेद एक ही समुदाय और परम्परा में रहे हैं।
यद्यपि सापेक्षता व्यवहार्य है इसके बिना काम नहीं चलता, जीवन-निर्वाह में उपयोगी है किन्तु इसमें कुछ दोष हैं
1. सापेक्षता साधनों पर अधिक बल देती है।
2. यह कर्म के बाह्य रूप को ही सब कुछ मान लेती है। 1. डॉ. भोलानाथ तिवारी : हिन्दी नीतिशास्त्र, पृ. 5